शनिवार, 23 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. २०-१) =


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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*- दोहा -*
*गुरु को दरसन देखतें, शिष पायौ संतोख ।*
*कारज मेरौ अब भयौ, मन महिं मान्यौ मोख ॥२०॥* 
गुरु को प्रथम बार देखते ही शिष्य ने अपने मन में सन्तोष माना कि अब मेरा कार्य अवश्य पूर्ण होगा । इतने दिन की दौड़ धूप से मुझे अब छुटकारा मिल जायगा और सांसारिक बन्धनों से भी अवश्य मुक्ति मिल जायगी ॥२०॥ 
*- शिष्य की प्रार्थना - सोरठा -*
*सीस नाइ कर जोरि, शिष्य सु प्रार्थना करि ।* 
*हे प्रभु लीजय छोरि, अभय दांन गुरु दिज्जिये ॥२१॥* 
गुरु के दर्शन होने पर शिष्य ने सिर नवाकर, हाथ जोड़ कर ऐसे प्रार्थना करना आरम्भ की कि प्रभो ! मुझे अपनी शरण में ले लीजिये । हे गुरुदेव ! अब मुझे अभयदान दीजिये ॥२१॥
(क्रमशः)

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