गुरुवार, 21 जनवरी 2016

= १९५ =


卐 सत्यराम सा 卐
मन ही मांहीं ह्वै मरै, जीवै मन ही मांहि ।
साहिब साक्षीभूत है, दादू दूषण नांहि ॥ 
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साभार ~ Swami Amitanand via Manoj Puri Goswami ~

मिथिला में एक बड़े ही धर्मात्मा एवं ज्ञानी राजा थे। राजकाज के विभिन्न कार्य और राजमहल के भारी ठाट-बाट के उपरांत भी वे उसमें लिप्त नहीं थे। राजॠषि की यह ख्याति सुनकर एक साधु उनसे मिलने आया। राजा ने साधु का हृदय से स्वागत सम्मान किया और दरबार में आने का कारण पूछा।
साधु ने कहा, "राजन्! सुना है कि इतने बड़े महल में आमोद प्रमोद के साधनों के बीच रहते हुए भी आप इनके सुखोपभोग से अलिप्त रहते हैं, ऐसा कैसे कर पाते है? मैंने वर्षों हिमालय में तपस्या की, अनेक तीर्थों की यात्राएं कीं, फिर भी मन को इतना नहीं साध सका। जबकि संसार के श्रेष्ठतम सुख साधन व समृद्धि के सहज उपलब्ध रहते यह बात आपने कैसे साध ली?"
राजा ने उत्तर दिया, "महात्माजी! आप असमय में आए हैं। यह मेरे काम का समय है। आपके सवाल का जवाब मैं थोड़ी देर बाद ही दे पाउँगा। तब तक आप इस राजमहल का भ्रमण क्यों नहीं कर लेते? आप इस दीये को लेकर पूरा महल देख आईए। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि दीया बुझने न पाए, अन्यथा आप रास्ता भटक जाएंगे।"
साधु दीया लेकर राजमहल को देखने चल दिए। कईं घन्टे बाद जब वे लौटे तो राजा ने मुस्करा कर पूछा, "कहिए, महात्मन् ! मेरा महल कैसा लगा?"
साधु बोला, "राजन्! मैं आपके महल के हर भाग में गया। सब कुछ देखा, किन्तु फिर भी वह अनदेखा रह गया।"
राजा ने पूछा, "क्यों?"
साधु ने कहा, "राजन्! मेरा सारा ध्यान इस दीये पर लगा रहा कि कहीं यह बुझ न जाय!"
राजा ने उत्तर दिया, "महात्माजी! इतना बड़ा राज चलाते हुए मेरे साथ भी यही होता है। मेरा सारा ध्यान अपनी आत्मा पर लगा रहता है। कहीं मेरे आत्मज्ञान की ज्योति मंद न हो जाय। किसी अनुचित कर्म की तमस मुझे घेर न ले, अन्यथा मैं मार्ग से भटक जाउंगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, कार्य करते यह बात स्मृति में रहती है। मेरा ध्यान चेतन रहता है कि सुखोपभोग के प्रलोभन में कहीं मै अपने आत्म को मलीन न कर दूँ। इसलिए साक्षी भाव से सारे कर्तव्य निभाते हुए भी संसार के मोहजाल से अलिप्त रह पाता हूँ।
साधु राजा के चरणों में नत मस्तक हो गया। आज उसे नया ज्ञान प्राप्त हुआ था, आत्मा की सतत जागृति, प्रतिपल स्मृति ही अलिप्त रहने में सहायक है।

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