शनिवार, 2 जनवरी 2016

= १४१ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू देखे वस्तु को, बासन देखे नांहि ।
दादू भीतर भर धर्या, सो मेरे मन मांहि ॥ 
बाहर दादू भेष बिन, भीतर वस्तु अगाध ।
सो ले हिरदै राखिये, दादू सन्मुख साध ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

‘अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंककर स्वर्ण —वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा। उसके शरीर का रंग स्वर्ण जैसा और उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी!

शरीर तो स्वर्ण जैसा बहुत बार मिल जाता है। तुम भी जानते हो। तुम किसी सुंदर स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो। शरीर स्वर्ण जैसा। लेकिन जैसे —जैसे स्त्री को जानना शुरू करते हो, वैसे—वैसे पता चलता है : मुंह से दुर्गंध निकलती है। तुम किसी सुंदर पुरुष के प्रेम में हो। दूर—दूर सब ठीक। दूर के ढोल सुहावने! जैसे—जैसे पास आते हो, वैसे—वैसे जीवन में झंझट बढ़नी शुरू होती है। जैसे—जैसे पास से जानते हो, वैसे—वैसे पता चलता है कि गुलाब तो दूर से दिखते थे, झाड़ी काटो से भरी है।

यहां सुंदरतम देहे मिल जाती हैं, लेकिन सुंदर आत्माएं कहां? और जब तक सुंदर आत्मा न मिले, तब तक कहां तृप्ति? कैसी तृप्ति?

लेकिन दूसरों के लिए यह मत सोचने लगना कि दूसरों के पास स्वर्ण—देह है और सुंदर आत्मा नहीं। अपनी तरफ भी देखना। वही गति तुम्हारी है। ऊपर—ऊपर अच्छे लगते, ऊपर—ऊपर साज— श्रृंगार है, ऊपर—ऊपर शिष्टाचार है, लीपा—पोती है। भीतर? सब रोग खड़े हैं। ऊपर मुस्कुराहटें हैं, भीतर घाव है। ऊपर बड़े सज्जन मालूम पड़ते, भीतर जंगली जानवर छिपा है। मुख में राम, बगल में छुरी!

अपने ही जीवन— अनुभव से देखोगे तो पा लोगे—यह बात सच है। भीतर का भोलापन कहां मिलता? भीतर का स्वर्ण कहां मिलता? भीतर और बाहर एक हो—ऐसा आदमी कहां मिलता? भीतर और बाहर एक ही धुन बजती हो, भीतर और बाहर एक ही ‘संगीत हो; भीतर और बाहर एक ही सुगंध हो—ऐसा आदमी कहां मिलता?

ऐसा आदमी मिल जाए, तो उसका संग—साथ मत छोड़ना। ऐसा आदमी पारस जैसा है। उसके साथ लोहा भी सोना हो सकता है। लेकिन उसके पास शरीर को ही मत रखना, नहीं तो ऊपर—ऊपर सोना हो जाओगे। उसके पास आत्मा को भी रखना। उसके चरणों में सिर ही मत झुकाना, आत्मा को भी झुका देना।

जब कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जिसके बाहर— भीतर सब एक हो; जिसके बाहर— भीतर नाद बज रहा हो; जिसके बाहर— भीतर ओंकार की गंज उठ रही हो, जिसके बाहर— भीतर आनंद ही आनंद हो, समाधि—समाधि के फूल खिल रहे हों, फिर वहां शरीर को ही मत झुकाना। शरीर से ही उसके पास मत जाना। फिर आत्मा से सत्संग करना। ...ओशो

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