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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
.
*घर घर फिरै कुमारी कन्या,*
*जनें जनें सौं करती संग ।*
*वेस्या सु तौ भई पतिबरता,*
*एक पुरुष कै लागी अंग ॥*
*कलियुग माँहें सतयुग थाप्या,*
*पापी उदौ धर्म कौ भंग ।*
*सुन्दर कहै सु अर्थ हि पावै,*
*जौ नीकै करि तजै अनंग ॥२०॥*
.
*= ह० लि० १,२ टीका =*
कंवारी कन्या नाम(सतगुरु के) दृढ़ उपदेश बिना जिज्ञासी की कच्ची जो बुद्धि सो घर घर फिरै नाम अनेक संत शास्त्रां की सभा संगति तामें जणें जणें सों नाम अनेक मतमतांतरा सों लागती फिरै ।
वेस्या नाम पदार्थों में बिचरिति फिरै ऐसी जो व्यभिचारिणी बुद्धि तानैं पति जो आपको प्रेरक पालक स्वामी ऐसा जो परमेश्वरजी ताको व्रत धारण कर्यो नाम वृत्तिनिवारि निश्चल होय एक पुरुष परमात्मा सों ही लागी ।
कलियुग नाम मलीन कर्मों में लीन ऐसी जो काया तानें सतयुगरूप ज्ञान - ध्यान - सत्यधर्म थाप्यो नाम थिर कियो । तामें पापी नाम इन्द्रियों को मारने वाला इन्द्रियजीत ताका उदै नाम वह सदा सुखी रहै । अरु धर्म नाम(साधारण) इन्द्रियों को पोषण ताको भंग नाम नाश(सो उसके हुए) सदा सुखी रहै ।
*सुन्दरदासजी कहैं है -* या का अर्थ कों सो पावै जो नीकै नाम मनसा वाचा कर्मणा भले प्रकार करि अनंग नाम काम कों तजै नाम त्यागै ॥२०॥
.
*= पीताम्बरी टीका =*
आत्मजिज्ञासा वाली जो बुद्धि है सोई मानो कुमारी कन्या(कुमारिका) है । सो अनेक सत्पुरुषों अथवा ज्ञान के अष्टसाधनरूप अनेक जने जने सूं संग कहिये प्रीति करती घर घर फिरै है कहिये अनेक शास्त्रन में अथवा तीन शरीरन में तीन अवस्थाओं में और पंचकोशन में बिचार करने कूं प्रवर्ते है ।
जो ब्रह्माकार बुद्धि की वृत्ति है सोई मानौ वेस्या है । जैसे वेस्या व्यभिचारिनी होवै है यातैं एक पुरुष के आश्रय होवै नहीं । तैसे वृत्ति भी अस्थिर होवै हैं । तातैं एक विषय के आकार रहै नहीं । ऐसे अज्ञानकाल में यद्यपि वृत्ति का चांचल्य देखिये है । तथापि ज्ञान हुये पीछे सो वृत्ति एकाग्र होवै है । जैसे वेस्या कूं भी किसी एक पुरुष के ऊपर प्यार होइ जावै तो और सब पुरुषन का आश्रय छोडिकै तिसी के साथ लगी रहै है । तैसे वृत्ति भी जब ब्रह्माकार होवै है तब विषयन में प्रवृत्त नहीं होवै किन्तु एक स्वरूप में ही स्थित होवै है । ऐसे वेस्या का औ वृत्ति का सादृश्य होने तैं वृत्ति कूं वेश्या कही है । फिर जैसे वेस्या किसी एक पुरुष के वश होवै है तब ताका पातिब्रत भी सिद्ध होवे है । तैसे ही वृत्ति भी जब ब्रह्माकार होवै है तब ताकी एकाग्रता भी सिद्ध होवै है । इस हेतु तें ही मूल में सो तो पातीबरता भई ओ एक पुरुष के अंग लागी - ऐसा कह्या है ।
रजोगुण औ तमोगुण की वृत्तिरूप मलिनधर्मवाला जो मन है सोई मानौं कलियुग है । काहेतें कि कलयुग में मलीनता की वृद्धि होवै है । तैसे ही मलीनता - युक्त मन होने तैं कलियुग का औ मन का सादृश कह्या है । ता मांही विवेक, वैराग्य, क्षमा, धैर्य उदारता आदि वृत्तिरूप श्रेष्ठधर्म - रूप ही मानौ सतयुग थाप्यो । काहेतें कि सतयुग में श्रेष्ठ धर्मन की वृद्धि होवै है तातें श्रेष्ठ धर्म - रूप ही सतयुग कह्या है । तामें पापी का उदय होवै है । कहे तै कि जो नाश करने वाला होवै है सो पापी कहिये है । सर्व अविद्या का औ ताके कार्य का नाश करने वाला ज्ञान है तातें ताकूं ही पापी कहै हैं । ता ज्ञानरूप पापी की पूर्वोक्त श्रेष्ठधर्मरूप सतयुग में बुद्धि होवै है । औ धर्म को भंग होवै है काहेतें कि जाते रक्षा होवै सो धर्म कहिये है । अविद्या औ ताका रक्षक अविवेक है । ताका तिस सतयुग में नाश होवे है ।
*सुन्दरदासजी कहते हैं* कि जो पुरुष नीके करि(अच्छी तरह से) अनंग(कामदेव) कूं भजै(नोट - पीताम्बरजी ने *तजै* की जगह *भजै* ऐसा पाठ विपर्यय के चमत्कार बढ़ाने को किया) सो याका अर्थ पावै । याका भाव यह है - जाका अंग नहीं ताकूं अनंग कहै है । ऐसे कामदेव की न्याई निरवयव जो ब्रह्म है ताकूं भजै कहिये जो निर्गुण उपासना करै सो अच्छी तरह से मोक्षरूप अर्थ कूं पावै ॥२०॥
*= सुन्दरदासजी की साषी =*
सुन्दर सबही सौं मिली, कन्या अषन कुमारि ।
वेस्या फिरि पतिब्रत लियौ, भई सुहागिन नारि ॥२९॥
कलियुग में सतजुग कियौ, सुंदर उलटी गंग ।
पापी भये सु ऊबरे, धर्मी हूये भंग ॥३०॥
(क्रमशः)
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*घर घर फिरै कुमारी कन्या,*
*जनें जनें सौं करती संग ।*
*वेस्या सु तौ भई पतिबरता,*
*एक पुरुष कै लागी अंग ॥*
*कलियुग माँहें सतयुग थाप्या,*
*पापी उदौ धर्म कौ भंग ।*
*सुन्दर कहै सु अर्थ हि पावै,*
*जौ नीकै करि तजै अनंग ॥२०॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =*
कंवारी कन्या नाम(सतगुरु के) दृढ़ उपदेश बिना जिज्ञासी की कच्ची जो बुद्धि सो घर घर फिरै नाम अनेक संत शास्त्रां की सभा संगति तामें जणें जणें सों नाम अनेक मतमतांतरा सों लागती फिरै ।
वेस्या नाम पदार्थों में बिचरिति फिरै ऐसी जो व्यभिचारिणी बुद्धि तानैं पति जो आपको प्रेरक पालक स्वामी ऐसा जो परमेश्वरजी ताको व्रत धारण कर्यो नाम वृत्तिनिवारि निश्चल होय एक पुरुष परमात्मा सों ही लागी ।
कलियुग नाम मलीन कर्मों में लीन ऐसी जो काया तानें सतयुगरूप ज्ञान - ध्यान - सत्यधर्म थाप्यो नाम थिर कियो । तामें पापी नाम इन्द्रियों को मारने वाला इन्द्रियजीत ताका उदै नाम वह सदा सुखी रहै । अरु धर्म नाम(साधारण) इन्द्रियों को पोषण ताको भंग नाम नाश(सो उसके हुए) सदा सुखी रहै ।
*सुन्दरदासजी कहैं है -* या का अर्थ कों सो पावै जो नीकै नाम मनसा वाचा कर्मणा भले प्रकार करि अनंग नाम काम कों तजै नाम त्यागै ॥२०॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
आत्मजिज्ञासा वाली जो बुद्धि है सोई मानो कुमारी कन्या(कुमारिका) है । सो अनेक सत्पुरुषों अथवा ज्ञान के अष्टसाधनरूप अनेक जने जने सूं संग कहिये प्रीति करती घर घर फिरै है कहिये अनेक शास्त्रन में अथवा तीन शरीरन में तीन अवस्थाओं में और पंचकोशन में बिचार करने कूं प्रवर्ते है ।
जो ब्रह्माकार बुद्धि की वृत्ति है सोई मानौ वेस्या है । जैसे वेस्या व्यभिचारिनी होवै है यातैं एक पुरुष के आश्रय होवै नहीं । तैसे वृत्ति भी अस्थिर होवै हैं । तातैं एक विषय के आकार रहै नहीं । ऐसे अज्ञानकाल में यद्यपि वृत्ति का चांचल्य देखिये है । तथापि ज्ञान हुये पीछे सो वृत्ति एकाग्र होवै है । जैसे वेस्या कूं भी किसी एक पुरुष के ऊपर प्यार होइ जावै तो और सब पुरुषन का आश्रय छोडिकै तिसी के साथ लगी रहै है । तैसे वृत्ति भी जब ब्रह्माकार होवै है तब विषयन में प्रवृत्त नहीं होवै किन्तु एक स्वरूप में ही स्थित होवै है । ऐसे वेस्या का औ वृत्ति का सादृश्य होने तैं वृत्ति कूं वेश्या कही है । फिर जैसे वेस्या किसी एक पुरुष के वश होवै है तब ताका पातिब्रत भी सिद्ध होवे है । तैसे ही वृत्ति भी जब ब्रह्माकार होवै है तब ताकी एकाग्रता भी सिद्ध होवै है । इस हेतु तें ही मूल में सो तो पातीबरता भई ओ एक पुरुष के अंग लागी - ऐसा कह्या है ।
रजोगुण औ तमोगुण की वृत्तिरूप मलिनधर्मवाला जो मन है सोई मानौं कलियुग है । काहेतें कि कलयुग में मलीनता की वृद्धि होवै है । तैसे ही मलीनता - युक्त मन होने तैं कलियुग का औ मन का सादृश कह्या है । ता मांही विवेक, वैराग्य, क्षमा, धैर्य उदारता आदि वृत्तिरूप श्रेष्ठधर्म - रूप ही मानौ सतयुग थाप्यो । काहेतें कि सतयुग में श्रेष्ठ धर्मन की वृद्धि होवै है तातें श्रेष्ठ धर्म - रूप ही सतयुग कह्या है । तामें पापी का उदय होवै है । कहे तै कि जो नाश करने वाला होवै है सो पापी कहिये है । सर्व अविद्या का औ ताके कार्य का नाश करने वाला ज्ञान है तातें ताकूं ही पापी कहै हैं । ता ज्ञानरूप पापी की पूर्वोक्त श्रेष्ठधर्मरूप सतयुग में बुद्धि होवै है । औ धर्म को भंग होवै है काहेतें कि जाते रक्षा होवै सो धर्म कहिये है । अविद्या औ ताका रक्षक अविवेक है । ताका तिस सतयुग में नाश होवे है ।
*सुन्दरदासजी कहते हैं* कि जो पुरुष नीके करि(अच्छी तरह से) अनंग(कामदेव) कूं भजै(नोट - पीताम्बरजी ने *तजै* की जगह *भजै* ऐसा पाठ विपर्यय के चमत्कार बढ़ाने को किया) सो याका अर्थ पावै । याका भाव यह है - जाका अंग नहीं ताकूं अनंग कहै है । ऐसे कामदेव की न्याई निरवयव जो ब्रह्म है ताकूं भजै कहिये जो निर्गुण उपासना करै सो अच्छी तरह से मोक्षरूप अर्थ कूं पावै ॥२०॥
*= सुन्दरदासजी की साषी =*
सुन्दर सबही सौं मिली, कन्या अषन कुमारि ।
वेस्या फिरि पतिब्रत लियौ, भई सुहागिन नारि ॥२९॥
कलियुग में सतजुग कियौ, सुंदर उलटी गंग ।
पापी भये सु ऊबरे, धर्मी हूये भंग ॥३०॥
(क्रमशः)
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