सोमवार, 11 जनवरी 2016

= १६७ =

卐 सत्यराम सा 卐
सकल भुवन भानै घड़ै, चतुर चलावनहार ।
दादू सो सूझै नहीं, जिसका वार न पार ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

मैंने एक झेन कहानी पढ़ी है
एक भिक्षु अपने गुरु की बरसी मना रहा था। गुरु चल बसे थे। लोगों ने पूछा कि हमें यह कभी पता ही नहीं था कि वे तुम्हारे गुरु थे! तुमने कभी बताया भी नहीं। और आज तुम उनकी बरसी मना रहे हो!

उस भिक्षु ने कहा कि इसीलिए मना रहा हूं; क्योंकि मैं जीवन में कई बार उनके पास गया कि मुझे अपना शिष्य बना लो। उन्होंने कहा तुझे शिष्य बनने की क्या जरूरत है! तू तू ही रह। मैंने बहुत बार उनसे प्रार्थना की, उन्होंने बहुत बार मुझे ठुकरा दिया। और इसीलिए मैं उनका अनुगृहीत हूं। नहीं तो मैं एक प्रतिलिपि बन गया होता। मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति बना—उनकी कृपा से। उन्होंने कभी मुझ पर थोपा नहीं कुछ।

बड़े आश्चर्य की बात है, मैं तुम पर कुछ नहीं थोपता हूं। उलटी हालत हो जाती है, तुम मुझ पर थोपने की आकांक्षा लेकर आ जाते हो! तुम सोचते हो ऐसा होना चाहिए। जैसे कि तुम्हें ठीक का पता है। तुम्हें ठीक का बिलकुल पता नहीं है। जिसे ठीक का पता है, वह इस जगत के वैविध्य को स्वीकार करेगा, क्योंकि विविधता सत्य है।

और लोग एक—दूसरे की प्रतिलिपि हो जाएं, तो जिंदगी बड़ी उबाने वाली हो जाएगी। एक कृष्ण काफी हैं। अनूठे हैं। मगर हजारों कृष्ण हो जाएं, तो सब रस गया। तब सारा रस गया, सारा सौंदर्य गया। एक बुद्ध अदभुत हैं। इसलिए भगवान दुबारा एक जैसे दो व्यक्ति पैदा नहीं करता। दुबारा कोई बुद्ध हुआ? दुबारा कोई कृष्ण हुआ? दुबारा कोई कबीर हुआ? दुबारा कोई नानक हुआ?

दुबारा भगवान पैदा ही नहीं करता। भगवान की कला यही है कि अद्वितीय, बेजोड़ बनाता है। हमेशा नए को निर्मित करता है।....osho

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