शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

= १७७ =


卐 सत्यराम सा 卐
ज्यों ज्यों पीवै राम रस, त्यों त्यों बढै पियास ।
ऐसा कोई एक है, बिरला दादू दास ॥ 
राता माता राम का, मतवाला मैमंत ।
दादू पीवत क्यों रहै, जे जुग जांहि अनन्त ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

सदा से आकांक्षा रही है आदमी के मन में कि ऐसा प्रेम हो, जो कभी मिटे न..............
ब्राह्मण के घर भगवान बुद्ध का पधारना नदी —नाव —संयोग था या नदी —सागर—संयोग? लेकिन क्या यह सच नहीं है कि नदी सागर के पास जाती है, सागर नदी के पास नहीं आता है?
पहली बात : सदगुरु से मिलना नदी—नाव—संयोग नहीं है, नदी—सागर—संयोग है। नदी—नाव—संयोग क्षणभर का होता है। पति—पत्नी का, भाई— भाई का, मित्र—मित्र का। इस जगत के और सारे संबंध नदी—नाव—संयोग हैं; बनते, मिट जाते। जो बनकर मिट जाए, वह संबंध सांसारिक है। जो बनकर न मिटे, वह संबंध संसार का अतिक्रमण कर जाता है।
इसीलिए तो सदा से आकांक्षा रही है आदमी के मन में कि ऐसा प्रेम हो, जो कभी मिटे न। क्योंकि ऐसा प्रेम अगर हो जाए, जो कभी न मिटे, तो वही परमात्मा तक ले जाने का मार्ग बन जाएगा। और जो प्रेम मिट—मिट जाते हैं, बनते हैं मिट जाते हैं, वे प्रेम नदी—नाव—संयोग हैं।
कोई अनिवार्यता नहीं है, नदी नाव से अलग हो सकती है, नाव नदी से अलग हो सकती है। तुम नाव को खींचकर तट पर रख दे सकते हो। कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन एक बार गंगा सागर में गिर गयी, फिर गंगा को खींचकर बाहर न निकाल सकोगे। फिर कोई उपाय नहीं है। फिर खोज भी न सकोगे कि गंगा कहां गयी। फिर गंगा को दुबारा बाहर निकालने की कोई संभावना नहीं है।
प्रेम इस ऊंचाई पर पहुंचे, तो नदी—सागर—संयोग हो जाता है। और अगर बुद्धपुरुषों के पास भी प्रेम इस ऊंचाई पर न पहुंचे, तो फिर कहां पहुंचेगा?
जो बुद्ध के पास थे, या जो महावीर के पास थे, या जो नानक के, कबीर के पास थे, जो सच में पास थे.। उनकी नहीं कह रहा हुं जो भीड़ लगाकर खड़े थे। भीड़ लगाकर खड़े होने से कोई पास है, यह पक्का नहीं है। पास तो वही है, जिसके भीतर ऐसे प्रेम का उदय हुआ है, जिसका अब कोई अंत नहीं है। वही पास है, जिसके भीतर शाश्वत प्रेम की ज्वाला जली है, जो अब कभी बुझेगी नहीं, जो बुझ ही नहीं सकती। वही गुरु और शिष्य का संबंध है। वह इस जगत में अपूर्व संबंध है। वह इस जगत में है, और जगत का नहीं है। वह संसार में घटता है, और संसार के पार है।
तो गुरु और शिष्य का मिलन नदी—सागर—संयोग है।

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