शनिवार, 16 जनवरी 2016

= १८० =

卐 सत्यराम सा 卐
जे शिर सौंप्या राम को, सो शिर भया सनाथ ।
दादू दे ऊरण भया, जिसका तिसके हाथ ॥ 
जिसका है तिसको चढै, दादू ऊरण होइ ।
पहली देवै सो भला, पीछे तो सब कोइ ॥ 
सांई तेरे नाम पर, शिर जीव करूं कुर्बान ।
तन मन तुम पर वारणै, दादू पिंड पराण ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~
दीपक की चमक में आग भी है
दुनिया ने कहा परवाने से।
परवाने मगर ये कहने लगे
दीवाने तो जलकर ही देखेंगे।
तेरी याद में जलकर देख लिया
अब आग में जलकर देखेंगे।
इस राह में अपनी मौत सही
ये राह भी चलकर देखेंगे।
पूछा है अनादि ने।
यही मार्ग संन्‍यासी का भी है—परवाने का मार्ग। जो जलने को तत्पर है, जो मिटने को राजी है, जो खोने की हिम्मत रखता है।
‘दीपक की चमक में आग भी है
दुनिया ने कहा परवाने से।’
दुनिया तो सदा से कहती रही है परवाने से—कि पागल! कहा जाता है? वह सिर्फ चमक नहीं है दीए में; वहा आग भी है।
यही तो तुमसे भी कहा है लोगों ने कि मेरे पास मत आना, यहां चमक ही नहीं है, आग भी है।
लेकिन परवाने दुनिया की सुनते! परवाने दुनिया की सुनें, तो परवाने नहीं। जो दुनिया की सुनें, वे परवाने हो नहीं सकते। परवाने तो अपने भीतर की सुनते हैं। दीए ने पुकारा है। शमा ने पुकारा है। उस जलती ज्योति ने पुकारा है। जाना है—चाहे कोई भी कीमत हो।
‘दीपक की चमक में आग भी है
दुनिया ने कहा परवाने से।
परवाने मगर ये कहने लगे
दीवाने तो जलकर ही देखेंगे।’
दुनिया में और कोई देखने का उपाय भी नहीं है, जलकर ही देखना पड़ता है। चलकर ही पहुंचता है कोई और जलकर ही देखता है कोई। बिना अनुभव के कोई शान नहीं।
‘तेरी याद में जलकर देख लिया
अब आग में जलकर देखेंगे।
इस राह में अपनी मौत सही
ये राह भी चलकर देखेंगे।’
मौत निश्चित ही है; शक—सुबहा कहां! मौत निश्चित ही है। वह परवाना देख रहा है दूसरे परवाने भी जल गए हैं, जो पास पहुंचकर गिर गए हैं। उनके पंख जल गए हैं; उनके प्राण उड़ गए हैं। लेकिन यह दूसरों को दिखायी पड़ता है—कि बेचारा परवाना! जलकर मर गया! लेकिन जो दूसरे परवाने चले आ रहे हैं, वे देखते हैं कि धन्यभागी था; देह से मुक्त हो गया; पिंजरे से बाहर हो गया। छूट गया बंधन, छूट गयी काया।
ये तो जो अपने को बचाना चाहते हैं, वे सोचते हैं कि बेचारा! जलकर मर गया! नासमझ, अज्ञानी, जलकर मर गया। दूर रहता।
लेकिन जो परवाने चले आ रहे हैं और उड़ते हुए, उनको तो यही दिखायी पड़ता है कि धन्यभागी था जो हमसे पहले पहुंच गया। वे इतना ही नहीं देखते कि जो नीचे जलकर गिरकर पड़ी है देह; वे वह भी देखते हैं जो उड़ गयी आत्मा, जो मुक्त हो गयी आत्मा। उन्हें कुछ और भी दिखायी पड़ता है।
एक तो वह है, जिसे दिखायी पड़ता है कि बीज सड़ गया, खतम हो गया— बेचारा! और एक वह है, जिसे दिखायी पड़ता है कि पौधा पैदा हो गया। धन्यभागी! बीज मरता है, तभी तो पौधा पैदा होता है। परवाना मरता है, तभी तो परतंत्रता से मुक्त होता है; परम दशा को पाता है।
‘इस राह में अपनी मौत सही…….।’
सही नहीं—होने ही वाली है। मौत के बिना कभी कुछ होता ही नहीं। मौत के बिना जीवन ही नहीं होता। जितनी बड़ी मौत, उतना बड़ा जीवन। जितनी घनी मौत, उतना बड़ा जीवन।
तुम उसी मात्रा में जीते हो, जिस मात्रा में तुम साहस रखते हो मरने का।
वही तो है जिंदगी, है जिसमें अटूट एहसास बचा है मौत का..... 
जिसमें खौफ हरदम, वो जिंदगी जिंदगी नहीं है.....

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