गुरुवार, 28 जनवरी 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू जा कारण जग ढूंढिया, सो तो घट ही मांहि ।
मैं तैं पड़दा भरम का, तातैं जानत नांहि ॥ 
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साभार ~ Manoj Puri Goswami ~ ध्येयनिष्ठा~~
बहुत समय पहले की बात है, एक वृद्ध सन्यासी हिमालय की पहाड़ियों में कहीं रहता था। वह बड़ा ज्ञानी था और उसकी बुद्धिमत्ता की ख्याति दूर -दूर तक फैली थी। एक दिन एक महिला उसके पास पहुंची और अपना दुखड़ा रोने लगी, "बाबा, मेरा पति मुझसे बहुत प्रेम करता था, लेकिन वह जबसे युद्ध से लौटा है, ठीक से बात तक नहीं करता" "युद्ध लोगों के साथ ऐसा ही करता है", सन्यासी बोला।
"लोग कहते हैं कि आपकी जड़ी-बूटी इंसान में फिर से प्रेम उत्पन्न कर सकती है, कृपया आप मुझे वो जड़ी-बूटी दे दीजिए", महिला ने विनती की। सन्यासी ने कुछ सोचा और फिर बोला, "देवी मैं तुम्हे वह जड़ी-बूटी ज़रूर दे देता, लेकिन उसे बनाने के लिए एक ऐसी वस्तु चाहिए जो मेरे पास नहीं है" "आपको क्या चाहिए मुझे बताइए, मैं लेकर आउंगी!", महिला ने आग्रह किया। "मुझे बाघ की मूंछ का एक बाल चाहिए!", सन्यासी ने बताया।
अगले ही दिन महिला बाघ की तलाश में जंगल में निकल पड़ी, बहुत खोजने के बाद उसे नदी के किनारे एक बाघ दिखा, बाघ उसे देखते ही दहाड़ा, महिला सहम गयी और तेजी से वापस चली गयी। अगले कुछ दिनों तक यही हुआ, महिला हिम्मत कर के उस बाघ के पास पहुँचती और डर कर वापस चली आती। महीना बीतते-बीतते बाघ को महिला की मौजूदगी की आदत पड़ गयी, और अब वह उसे देख कर सामान्य ही रहता। अब तो महिला बाघ के निकट जाकर उसे परेशान करते कीट मक्खियों को दूर करती, सहलाती। बाघ को भी उसकी उपस्थिति रास आने लगी। उनकी मैत्री बढ़ने लगी, अब महिला बाघ को थपथपाने भी लगी। और देखते देखते एक दिन वो भी आ गया जब उसने हिम्मत दिखाते हुए बाघ की मूंछ का एक बाल भी निकाल लिया।
फिर क्या था, वह बिना देरी किये सन्यासी के पास पहुंची, और बोली, "मैं बाल ले आई बाबा!!" "बहुत अच्छे!" और ऐसा कहते हुए सन्यासी ने बाल लेकर उसे जलती हुई अग्नी में झोंक दिया। "अरे! ये क्या बाबा, आप नहीं जानते, इस बाल को लाने के लिए मैंने कितना कठिन श्रम किया और आपने इसे जला दिया? अब मेरी जड़ी-बूटी कैसे बनेगी?", महिला घबराते हुए बोली। "अब तुम्हे किसी जड़ी-बूटी की ज़रुरत नहीं है", "सन्यासी बोला। जरा सोचो, तुमने बाघ को किस तरह अपने वश में किया!, जब एक हिंसक पशु को धैर्य, मनोबल और प्रेम से जीता जा सकता है तो भला एक इंसान को नहीं ? तुमने धैर्य, सहनशीलता, ध्येय समर्पण व पुरूषार्थ से लक्ष्य सिद्ध करने का पाठ न केवल पढा, बल्कि उसे प्रायोगिक सिद्ध भी कर लिया है. बस अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं आत्मकेन्द्रित मनोबल चाहिए, यही कार्य की सफलता का मंत्र है।
'कस्तूरी कुण्डली बसे मृग ढ़ूंढे बन माहिं' …… मानव में मनोबल की असीम शक्तियाँ छुपी होती है, जैसे ही प्रमाद हटता है और पुरूषार्थ जगता है, शक्तियाँ सक्रिय हो जाती है।

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