गुरुवार, 28 जनवरी 2016

= १७ =

卐 सत्यराम सा 卐
सतगुरु शब्द विवेक बिन, संयम रह्या न जाइ ।
दादू ज्ञान विचार बिन, विषय हलाहल खाइ ॥ 
घर घर घट कोल्हू चलै, अमी महारस जाइ ।
दादू गुरु के ज्ञान बिन, विषै हलाहल खाइ ॥ 
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साभार ~ Pannalal Ranga
वासना-त्याग के बिना चैन कहाँ?
भोगों की तृष्णा एक ऐसी अक्षय प्यास है जो कभी शाँत ही नहीं होती। लोग सुख के भ्रम में जवानी में भोगों के प्रति आकर्षित रहते हैं। उसके परिणाम पर विचार नहीं करते कि आज शक्ति होने पर जो वे अपनी वृत्तियों को भोगों का गुलाम बनाये दे रहे हैं इसका फल आगे चलकर बुढ़ापे में क्या होगा? उस अशक्त एवं जर्जर अवस्था में भोगों की प्यासी वृत्तियाँ क्या शत्रु की तरह त्रास न देंगी? भोग एक प्रज्वलित अग्नि के समान है, इनको जितना ही भोगा जाता है इनकी ज्वाला उतनी ही बढ़ती जाती है और धीरे-धीरे एक दिन मनुष्य की सारी सुख-शाँति की सम्भावनाओं को सदा के लिए भस्म कर देती हैं।
भोगों की भयंकरता समझने के लिये महाराज ययाति का उदाहरण पर्याप्त है - राजा ययाति भोगों में आनन्द की कल्पना कर बैठे। निदान आनन्द पाने के लिए वे पूरी तरह से भोगों में डूबे रहने लगे। इसका फल यह हुआ कि उन्हें शीघ्र ही जठरता ने घेर लिया। उनकी शक्ति समाप्त हो गई किन्तु भोगेच्छा और भी बढ़ गई। राजा ययाति अपनी विकृत वृत्तियों से दिन और रात दुःखी रहने लगे। उनका दिन का चैन और रात्रि की नींद गायब हो गई। उनकी अतृप्त वासनायें उन्हें पल-पल पर त्रास देने लगी। विषय-वासनाओं के बन्दी राजा ने कोई उपाय न देखकर अपने को याचक बनाया, सो भी अपने पुत्र से - और वह भी यौवन का। 
उन्होंने अपने छोटे पुत्र से एक हजार वर्ष तक के लिए जवानी की भीख इसलिये माँगी कि वे अपनी अतृप्त वासनाओं को पुनः भोग सकें। पुत्र को अपने पिता की दशा पर बड़ा तरस आया उसने अपना यौवन उन्हें दे दिया। ययाति की वासना-कलुषित बुद्धि यह न सोच सकी कि पुत्र पर कितना बड़ा अन्याय होगा। किन्तु भोगों का भूखा मनुष्य भेड़िये से कम निर्दयी नहीं होता।
पुत्र से यौवन लेकर राजा ययाति पुनः भोगों में डूब गये और पूरे एक सहस्र वर्षों तक डूबे रहे। उन्हें पूरी आशा थी कि वे विषय-वासना के माध्यम से सच्ची सुख-शाँति पा लेंगे। किन्तु एक सहस्र वर्ष बीतने पर जब पुत्र को यौवन वापिस करने का अवसर आया तो उन्होंने देखा कि उनकी भोग-लिप्सा और अधिक बढ़ गई है। विवशता वश उन्हें पुत्र का यौवन लौटाना पड़ा और एक अशाँत मृत्यु मरने के पश्चात शायद गिरगिट की योनि भोगनी पड़ी। भोगों तथा विषय-वासना में सुख-शाँति का स्वप्न देखने वालों की यही दशा होना सम्भाव्य है।
मनुष्य के साध्य - सुख और शाँति का निवास कामनाओं, उपादानों अथवा भोग-विलासों में नहीं है। वह कम से कम कामनाओं, अधिक से अधिक त्याग और विषय-वासनाओं के विष से बचने में ही पाया जा सकता है। जो निःस्वार्थी, निष्काम, पुरुषार्थी, परोपकारी, सन्तोषी तथा परमार्थी है, सच्ची सुख-शाँति का अधिकारी वही है। साँसारिक स्वार्थों एवं लिप्साओं के बन्दी मनुष्य को सुख शाँति कहाँ ?
नमन

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