सोमवार, 4 जनवरी 2016

पद. ४३८

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३८. फरोदस्त ताल ~
गोविन्द पाया मन भाया, अमर कीये संग लीये ।
अक्षय अभय दान दीये, छाया नहीं माया ॥ टेक ॥ 
अगम गगन अगम तूर, अगम चन्द अगम सूर ।
काल झाल रहे दूर, जीव नहीं काया ॥ १ ॥ 
आदि अंत नहीं कोइ, रात दिवस नहीं होइ ।
उदय अस्त नहीं दोइ, मन ही मन लाया ॥ २ ॥ 
अमर गुरु अमर ज्ञान, अमर पुरुष अमर ध्यान ।
अमर ब्रह्म अमर थान, सहज शून्य आया ॥ ३ ॥ 
अमर नूर अमर वास, अमर तेज सुख निवास ।
अमर ज्योति दादू दास, सकल भुवन राया ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अब तो हमने हमारे मन को प्रिय लगने वाले गोविन्द को प्राप्त कर लिया है । वह गोविन्द हमको अभेद रूप से अपने संग लेकर हमको अमर किये हैं और फिर अक्षय पद, अभय पद का दान दिया है । उनके स्वरूप में माया और माया की छाया लौकिक सुख, इन दोनों का ही अभाव है । वे हृदय आकाश से और अनहद शब्द से भी आगे हैं तथा चन्द्रमा - सूर्य के प्रकाश से भी अगम्य हैं, किसी की भी उनके स्वरूप में गम नहीं पहुँचती है । काल की झल(ज्वाला) उनसे दूर ही रहती है तथा वे जीवत्व - भाव, कहिए कर्ता भोक्तापन से भी अलग हैं और न वे स्थूल शरीर रूप ही हैं । हे जिज्ञासु ! ऐसे समर्थ परमेश्‍वर के स्वरूप का आदि अंत किसी प्रकार भी नहीं ज्ञात होता है । न उनके स्वरूप में रात है और न दिन ही है अर्थात् उनके स्वरूप में अज्ञान रूप रात्रि और इन्द्रिय - ज्ञान रूपी दिन नहीं है । न उनके पास चन्द्र - सूर्य आदि का उदय अस्त ही होता है और न ज्ञान का उदय अस्त ही होता है । वे स्वयं नित्य ज्ञान - स्वरूप हैं । हमने अपने व्यष्टि मन को चिन्तन द्वारा उनके समष्टि मन में अभेद किया है । वे अमर स्वरूप गुरुदेव हैं । उनका ज्ञान भी अमर ही है । वे ही अमर पुरुष हैं और उनका ध्यान भी अमर करने वाला है । वे परब्रह्म ही अमर स्थान रूप हैं । वे सहज क हिए निर्विकार स्वरूप, सहजावस्था रूप समाधि में, ज्ञान रूप नेत्रों से दिखाई पड़ते हैं । उनका शुद्ध रूप ही अमर है । उसमें ब्रह्मवेत्ता अपनी सुरति के द्वारा वास करते हैं । उनका ब्रह्मतेज ही अमर है । वे ही ब्रह्मवेत्ताओं का निवास स्थान हैं । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि वे हमारे उपास्यदेव परब्रह्म, अमर ज्योतिरूप हैं और सम्पूर्ण भुवनों के राजपति राजा हैं । हम दासों का उस नित्य आनन्द स्वरूप में ही निवास है

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