रविवार, 3 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२१)




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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बिप्र रसोई करनै लागौ,*
*चौका भीतरी बैठौ आइ ।*
*लकरी महि चूल्हा दियौ,*
*रोटी ऊपर तवा चढाइ ॥* 
*षिचरी मंहिं हंडिया रांधी,*
*सालन आक धतूरा खाइ ।* 
*सुंदर जीमत अति सुख पायौ,*
* अबकै भोजन कियौ अघाइ ॥२१॥*
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*= ह० लि० १, २ टीका =* 
विप्र जो(वेदादि का ज्ञान प्राप्त) जीव सो परम शुद्ध हो सर्व कर्म काल को मारि अपने हित अपरस सों जब रसोई करनैं लागो नाम भाव - भक्ति करनैं को लाग्यो तब चोका जो शुद्ध निर्विकार किया अंतःकरण चतुष्टय तामें आइकै बैठ्यो नाम निश्चल हुवो । 
लकरी नाम लै तामें चूल्हा नाम चित्त दियौ नाम लगायो निश्चल कियो । रोटी जो रटणि ता ऊपर तामें तत्वज्ञान का तवा चढाया परमेश्वरजी सो रटणि लागि तब तत्वज्ञान प्राप्त हुवो । 
खिचरी जो भक्ति और ज्ञान की मिश्रता तामें हंडिया नाम काया सो रांधी नाम ता भक्ति - ज्ञान में लीनकरि शिद्ध करी । अरु ता खिचरी की साथी सालन नाम साग सो आक धूतरारूप, पचना जिनका अतिकठिन, जो काम - क्रोधादि सो सब खाया नाम सर्व जीतकरि निवृत्त किया । 
जीमत नाम इनको जीतितां अरु ज्ञानभक्ति की प्राप्ति होतां अति बड़ो सुख पायो नाम बहुत आनंद हुवो । अबकै या मनुष्यजन्म में आय अघाय नाम तृप्त होकरि भोजन किया नाम भक्तिज्ञान सों कार्य सिद्ध कियौ नाम भगवत् की प्राप्ति हुई ॥२१॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
जो शुद्ध अंतःकरण जिज्ञासु जीव है सोई मानौ विप्र(ब्राह्मण) है । सो मोक्ष - सम्पादनरूप रसोई करने लाग्यो । तब विवेकादी चारि साधनरूप चोका के भीतर आके बैठो । कहिये साधन - सम्पन्न भयो ।
नाना प्रकार के जो अनेक कर्म हैं सोई मानौ अनेक लकरिआं हैं । ता माहिं ब्रह्मोपदेशरूपी चूल्हा दियो । तिसने ज्ञानरूप अग्नि करि कर्मरूप लकरियां जलाय डाली । तब प्रारब्ध फल की भोग्यतारूप रोटी के ऊपर कर्मवशात् होने के निश्चयरूप तवा कूं चढाई दियो । अर्थात् जब ब्रह्मोपदेशजन्य ज्ञानतैं सब कर्मन का नाश होवै है तब तिस ज्ञानी का ऐसा निश्चय होवै है - “मैं अकर्त्ता हूँ अभोक्ता हूँ । जो शेष प्रारब्ध कर्म रहे हैं सो जौलौं भोगं का आयतन शरीर है तौलौं यथावत् भोग देहूं । ताकी  चिन्ता मेरे कूं कर्त्तव्य नहीं ।” 
वैराग्यरूप जल, बोधरूप चांवल और उपशमरूप मूंग - इन तीनूं की मीश्रतारूप खिचरी है । ता मांहि हंडिया कहिये भोगन विषे दीनता, सत्यता की भ्रांति औ प्रतीति आदि धर्मयुक्त समष्टि, व्यष्टि, स्थूल, सूक्ष्म प्रपंचरूप जो माया है सो रांधी कहिये बाधित करी । और अनेक रागद्वेषादि दुर्वासनारूप जो महा उग्र कटुक - आक औ धतूरा हैं टिमका सालन(शाक) बनाइ के खाइ कहिये जीति के ।
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि कार्य - सहित अज्ञान कि निवृतितरूप रसोई, वासना की निवृत्तिरूप शाक सहित जीमत कहिये अनुभव करिकै अति सुख पायो कहिये परमानन्द की प्राप्ति भई । ओ अबके कहिये इस मनुष्य - शरीर में ही ईश्वर, श्रुति, गुरु औ स्व - अंतःकरण इन सर्व की कृपा से ज्ञान पाइके अघाइ कहिये संसार के भोगन की तृष्णा करि रहिततारूप तृप्ति कूं पायके जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनंद का जो अनुभव है तद्रूप भोजन कियो । 
याका भाव यह है - पूर्व अज्ञानकाल में अनेक देह प्राप्त हुवे थे तिनमें विषयानंद का अनुभव तो बहुत किया है परन्तु स्वरूपानन्द का अनुभव कदै भी हुवा नहीं है । काहे तैं कि तिस काल में मूला अज्ञानरूप प्रतिबन्ध था । औ पश्चात् विदेह - मोक्ष में भी सर्वदुःखन की निवृत्ति पूरक निरावण, परिपूर्ण आनंदस्वरूप करि अवस्थित होवै है । परन्तु अस्तिव्यवहार की हेतु जो वृत्ति है ताका अभाव होने तैं जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनन्द का अनुभव नहीं होवै है । यातें ज्ञानयुक्त देह में ही जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनन्दरूप विद्यानन्द का अनुभव होने कूं शक्य है । तातें सुखेच्छु विद्वान् करि विषयानंद कूं त्यागि के ब्रह्म - बिचार द्वारा पूर्वोक्त आनन्द का अनुभव अवश्य कर्तव्य है । यद्यपि सुषप्त्यादि में भीई आनन्द तो है । तथापि सो निरावरण, परिपूर्ण औ सर्वत्तिक नहीं है, तातैं बिलक्षण सुख का हेतु नहीं है । 
जो निरावरण, परिपूर्ण औ स वृत्तिक होवै सो *विलक्षणआनन्द* कहिये है । इस लक्षण की यह पदकृति१ है{१. पदकृति - पदकृत्य(पद का अर्थ)} - सुषुप्ति में जो आनन्द है सो आवरण रहित है । औ विषय में जो आनन्द है सो निरावरण तो है तथापि विषय की प्राप्तिक्षण में जब अंतरमुख वृत्ति होवै है तब तामें स्वरूपानन्द का प्रतिबिंब पड़ै है यातें परिपूर्ण नहीं किन्तु एक देश वृत्ति होने तें परिच्छन्न है । तैसे ही पूर्णानंद तो अज्ञानी का स्वरूप भी है, तथापि सो निरावरण औ अभिमुख वृत्ति सहित नहीं । औ जो विदेहमुक्ति में निरावरण पूर्णानंद है सो वृत्तिक नहीं अवृत्तिक है । यातें निरावरण, परिपूर्ण औ सवृत्तिक आनन्दरूप *विलक्षणानन्द* का लक्षण किये से कहूं भी अतिव्याप्ति आदि दोष नहीं है ॥२१॥ 
*सुन्दरदासजी की साषी -* 
“विप्र रसोई करत है, चौके काढी कार । 
लकरी में चूल्हा दियौ, सुन्दर लगी न बार” ॥३१॥ 
(क्रमशः)

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