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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५८ दिन ४०*
*सेवार्थ अकबर की प्रार्थना*
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तब अकबर बादशाह ने कहा - स्वामिन् ! आपकी कृपा से अब मैं संशय रहित हूँ, मेरे मन में कोई संशय नहीं रहा है किन्तु मेरी एक प्रार्थना अवश्य है - आप यहां ही विराजें, यहां आपको क्या कष्ट है ? आप आज्ञा दें आपकी आज्ञानुसार स्थान बनवा देता हूँ और उसको चलाने के लिये बहुत से ग्राम उसकी भेंट कर दूंगा जिससे सदा संतों की सेवा भी होती रहेगी और आपको भी बहुत सा धन देता हूँ जिसका आप अपनी इच्छानुसार दान करैं । मैं तो आपके उपदेश से इतना प्रभावित हुआ हूँ कि दिल्ली का संपूर्ण राज्य भी आपकी भेंट करके आपके ऋण से नहीं छूट सकता ।
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अकबर के उक्त वचन सुनकर परम विरक्त महाज्ञानी संत प्रवर दादूजी महाराज ने कहा ।
*= दादूजी का त्याग =*
हे हजरत ! हमें स्थान, ग्राम, राज्य आदि कुछ भी नहीं चाहिये । तुम तो संतों की सेवा करो, प्रभु का भजन करो और हमें जाने दो । हमारा शरीर ही हमारा धाम है, यही आत्माराम का ठिकाना है । सब प्राणियों को ज्ञान देना और अभय देना ही हमारा दान है । तुम्हारा धन लेकर हम दान करें ऐसी इच्छा हमको नहीं होती है । क्यों ? जो करता होकर कुछ करता है वह उसके अभिमान से बंधता भी है । उसको पूछें कि तुम इस अहंकार से कैसे मुक्त होगे ? तो वह उसका उत्तर नहीं दे सकेगा -
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"करता होकर कुछ करे, उस मांहिं बँधावे ।
दादू उसको पूछिये, उत्तर नहिं आवे ॥
माया का गुण बल करे, आपा उपजे आय ।
राजस तामस सात्विकी, मन चंचल हो जाय ॥
माया से मन बीगड़ा, ज्यों कांजी कर दुद्ध ।
है कोई संसार में, मन कर देवे शुद्ध ॥
माया मगहर खेत खर, सदगति कदे न होय ।
जे बंचे ते देवता, राम सरीखे सोय ॥
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स्थानादि तो साधु के लिये बन्धन रूप हैं, साधु तो स्थानादि को त्यागते हैं फिर आप हमको उनके प्रलोभन में क्यों फँसाना चाहते हैं ? दादूजी के उक्त वचन सुनकर अकबर ने पुनः विनय की । स्वामिन् ! हमारी प्रसन्नता के लिये ही कुछ तो हमारी विनय मानलें । दादूजी ने कहा - हमको तो इन सांसारिक पदार्थों से कुछ भी लाभ नहीं होता है उलटा प्रभु भजन में विघ्न ही होता है ।
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अकबर ने कहा - आप तो हमारे भाव-प्रेम को देखकर कुछ ग्रहण करें और ईश्वर की सेवा में लगादें, खावें और संतों को खिलाकर पूरा करदें । दादूजी ने कहा - हमारी ईश्वर सेवा तो - आठों पहर निरंतर उनका भजन करना ही है । अकबर ने कहा - न तो आप दूसरे के देने पर लेते हैं और न कमाते हैं फिर आपका निर्वाह कैसे होगा ? मेरे विचार से तो आपको धन ग्रहण करके उससे अपने भी सब काम करैं और संतों को भी खिलावें ।
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दादूजी ने कहा - जो संत सांसारिक उद्योग न करके निरंतर प्रभु का भजन ही करते हैं, उनका योग क्षेम परमात्मा स्वयं ही करते हैं । अकबर ने कहा - आप स्थायी धन ग्रामादि नहीं लें तो भी सोना, चांदी, कपड़ा आदि तो ग्रहण करें । दादूजी ने कहा - कपड़ा फटने पर कपड़ा लेते ही हैं । भूख लगने पर अन्न भी उचित रूप में ग्रहण करते ही हैं । सोना, चाँदी को लेकर तो संत क्या करें ? संतों का परम धन तो परमेश्वर का भजन ही है, सो तो वे निरंतर संग्रह करते ही रहते हैं ।
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इतने में ही अकबर की दृष्टि दादूजी महराज की गुदड़ी पर पड़ी । वह एक स्थान से फटी हुई थी । इससे अकबर ने कहा - यह आपकी गुदड़ी फट गई है, फटने पर तो आप कपड़ा लेते ही हैं । ऐसी गुदड़ी दूसरी बनवादी जाय । दादूजी ने कहा - गुदड़ी तो अभी चलेगी, यह जहां से फटी है, वहां इसके ऊपर ऐसे ही कपड़े की थेगली लगा दी जायगी, थेगली जितना ऐसा ही कपड़ा मँगवादें । तब अकबर ने बीरबल की ओर देख कर कहा - ऐसा कपड़ा शीघ्र ही मँगवा कर स्वामीजी की गुदड़ी ठीक करादो । किंतु यत्न करने पर भी वैसी छींट का कपड़ा सीकरी और आगरा में मिला ही नहीं ।
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तब अकबर ने कहा - हमारी सेवा तो आप कुछ भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं । दादूजी ने कहा - आपके पास कनक, कामिनी हैं, इनका ग्रहण तो साधु के लिये प्रभु भजन में विघ्न रूप से अपराध ही है । आप हमारी सेवा करना ही चाहते हैं तो - सर्व प्राणियों पर दया करो, परमात्मा का भजन करो, परोपकार के कार्य करो, यही हमारी सेवा है । इस प्रकार चालीस दिन तक प्रतिदिन अकबर ने दादूजी का उपदेश सुना था !
(क्रमशः)
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