रविवार, 24 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. २२-९) =


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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
*- प्रार्थनाष्टक१ अर्धभुजंगी -* 
*अहो देव स्वामी, अहं अज्ञ कामी ।* 
*कृपा मोहि कीजै, अभै दांन दीजै ॥२२॥(१)* 
"हे गुरुदेव ! हे मेरे स्वामिन् ! मैं तो अहंकारी हूँ, अज्ञानी हूँ, कामवासनाओं में लिप्त हूँ, मुझ पर कृपा कीजिये ! मुझे अभयदान जीजिये ॥२२॥ (१. यह प्रार्थनाष्टक दादूपन्थी सन्तों की सान्ध्यकालीन सामूहिक प्रार्थना में प्रतिदिन बोला जाता है ।) 
*बड़े भाग मेरे, लहे अंध्रि तेरे ।* 
*तुम्है देखि जीजै, अभै दांन दीजै ॥२३॥(२)* 
"हे गुरुदेव ! मेरा अहोभाग्य है कि मैने आपके श्रीचरणों में शरण प्राप्त कर ली । अब तो मुझे आपके दर्शन से ही तृप्ति मिलती है । अतः मुझे अभय प्रदान कीजिये ॥२३॥ 
*प्रभू हौं अनाथा, गहौ मोर हाथा ।* 
*दया क्यौं न कीजै, अभै दानं दीजै ॥२४॥(३)* 
"हे प्रभो, मैं तो अतिशय अनाथ हूँ, मेरा इस संसार में कोइ आश्रय नहीं है । मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सहारा दीजिये । आप मुझ पर दया क्यों नहीं करते । मुझे अभयदान दीजिये ॥२४॥ 
*दुखी दीन प्राणी, कहौ ब्रह्म बांणी ।* 
*हृदौ प्रेम भीजै,अभै दांन दीजै ॥२५॥(४)* 
"हे स्वामिन् ! यह आपके सामने खड़ा हुआ निरीह प्राणी बहुत ही दु:खी है, अकिंचन है, इसे ब्रह्मवाक्यों का उपदेश कीजिये,जिससे इसका हृदय जगन्नियन्ता प्रभु के प्रेम में द्रवित हो जाय । हे प्रभो ! मुझे ऐसा अभय प्रदान कीजिये कि अब कोइ सांसारिक बाधा दु:ख न पहुँचा पाये ॥२५॥ 
*यती जैंन देखे, सबै भेख पेखे ।* 
*तुम्हैं चित्त धीजै, अभै दांन दीजै ॥२६॥(५)* 
मैंने श्वेताम्बर, दिगम्बर जैन मतों का बहुत अध्ययन कर के देख लिया, अन्य सदायों के मतों का भी भली भाँति अवलोकन कर लिया; अब तो केवल मेरा आप पर दृढ हो विश्वास रहा है कि आप ही मुझे मोक्ष का मार्ग बता सकेंगे । हे प्रभो ! मुझे अभयदान दीजिये ॥२६॥ 
*फिर्यौ देश देशा, किये दूरी केशा ।* 
*नहीं यौं पतीजै, अभै दांन दीजै ॥२७॥(६)* 
मैं मुक्ति का उपाय ढूँढने के लिये दुनियाँ भर में घूम चुका हूँ । लोगों के कहने से उसके लिये मैंने नाना प्रकार के मुण्डन आदि संस्कार कराये, परन्तु मुझे आपको छोड़ कर किसी पर भी अभी तक विश्वास नहीं हुआ । हे प्रभो मुझे अभयदान दीजिये ॥२७॥ 
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*गयौ आयु सारौ, भयौ सोच भारौ ।*
*वृथा देह छीजै, अभै दांन दीजै ॥२८॥(७)* 
हे प्रभो ! मेरी आयु इसी प्रकार घूमते हुए बीत गयी । मैं अब वृद्ध हो चला । मुझे अब यही चिन्ता सता रही है कि मैं जीवनपर्यन्त कुछ नहीं कर पाया, मेरा देह यों ही क्षीण हो गया । हे प्रभो ! मुझे अभयदान दीजिये । और मेरी चिन्ता दूर कीजिये ॥२८॥ 
*करौ मौज ऐसी, रहे बुद्धि वैसी ।* 
*सुधा नित्य पीजै, अभै दांन दीजै ॥२९॥(८)* 
हे स्वमिन् ! अब आनन्दसागर में मेरी ऐसी डुबकी लगा दीजिये कि मैं सदा सर्वदा ब्रह्ममग्न हो कर ब्रम्हामृत का पान करता रहूँ ! हे प्रभो ! मुझे ऐसा ही अभयदान दीजिये" ॥२९॥
(क्रमशः)

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