रविवार, 24 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६४ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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अलोदा ग्राम वाले भक्तों को ज्ञात हुआ कि दादूजी महाराज का प्रवचन दोनों समय दौसा में होता है । तब वहां से लाखा, नरहरि, दामोदरदास आदि कई भक्त दादूजी महाराज के सत्संग के लिये दौसा आ गये और दोनों समय सत्संग का लाभ उठाने लगे ।
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जगजीवनजी को, जो पूर्व गुरुदेव द्वारा भजन करने का स्थान बताया गया था, वे इन्हीं दिनों में उस पहाड़ी पर प्रायः जाया करते थे और वहां शिला पर आसन लगाकर भजन किया करते थे ।
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वहां भजन में बहुत ही अच्छा मन लगता था । इससे जगजीवनजी ने निश्चय कर लिया था कि गुरुदेव की आज्ञा यहां ही बैठकर भजन करने की है । अतः मैं कुछ दिन गुरुदेव के साथ रहकर फिर गुरुजी से आज्ञा माँगूंगा । यहां आने के लिये आज्ञा मिलने पर यहां ही आकर भजन करना है ।
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*= परमानन्द को पुत्र होने का वर =*
परमानन्द की पत्नी शांतिदेवी ने अपने पति से कहा - दादूजी महान् सिद्ध संत हैं, मैं अपने पीहर आमेर में इतनी विचित्र सिद्धि संपन्न कथायें सुनती रहती थी और इनके शिष्य इनके शिष्य जग्गाजी ने मेरे को सूत के बदले में पुत्र होनों का वर भी दिया था किन्तु अभी तक हमारे पुत्र नहीं हुआ है, आप दादूजी से पुत्र की याचना करो ।
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वह परमानन्द को बारंबार पुत्र याचना की प्रेरणा करने लगी और परमानन्द भी मन से तो पुत्र चाहते थे किन्तु लज्जा के कारण दादूजी से कह नहीं सकते थे । एक दिन परमानन्द को अपने पास अकेले देखकर दादूजी ने कहा - तुम दोनों पति पत्नी के मन में पुत्र प्राप्ति की अति अभिलाषा है, यह मैंने अपनी योग-शक्ति से जान लिया है । तब परमानन्द ने कहा - गुरुदेव ! आप सत्य ही कहते हैं बात ऐसी ही है । पत्नी के बारंबार प्रेरणा करने पर भी मैं लज्जा के कारण आपको नहीं कह रहा था । अब आप हम पर पुत्र प्रदान करने की कृपा अवश्य ही करें ।
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तब दादूजी ने कहा - पुत्र तो तुम्हारे एक अवश्य होगा किन्तु अभी नहीं होकर देर से होगा और छोटी अवस्था में ही विरक्त हो जायगा, घर पर नहीं रहेगा । तुम पुत्र के द्वारा अपना नाम चाहते हो । वह तुम्हारा पुत्र प्रसिद्ध अद्वैतवादी विरक्त संत होगा । उसके द्वारा तुम्हारा नाम अमर हो जायगा । वह जीवन्मुक्त होकर विचरेगा, उसका पुनर्जन्म नहीं होगा । उसकी शब्दरूप वासना(वाणी) जगत् में अमर रहेगी ।
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ऐसा कहकर दादूजी ने कहा -
"साधु जन की वासना१, शब्द रहै संसार ।
दादू आतम ले मिले, अमर उपावन हार ॥"
जैसे पुष्प नष्ट होने पर भी पुष्प की सुगन्ध तेल में मिलकर रहती है, वैसे ही संतों का शरीर नष्ट होने पर भी संतों की भावना१ शब्दों में मिलकर संसार में रहती है और जिज्ञासु आत्मा उस भावना को लेकर अर्थात् धारण करके सृष्टिकर्ता, अर्थात् विवर्त्तोपादन अमर ब्रह्म से अभेद भावना द्वारा एक होकर उसी में मिल जाता है ।
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स्वामी दादूजी महाराज से पुत्र प्राप्ति का वर प्राप्त करके परमानन्द चौखा का मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ । फिर उसने अपनी पत्नी शांतिदेवी को भी उक्त पुत्र प्राप्तिरूप वर की सब कथा सुना दी । वह भी सुनकर फूली न समाई अर्थात् अति प्रसन्न हुई ।
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उक्त प्रकार परमानन्द चौखा को सुख प्रदान करके दादूजी ने दौसा से विचरने का विचार किया तब अलोदा से आये हुये भक्तों ने हाथ जोड़कर दादूजी ने जो अलोदा से विचरने के समय श्रीमुख से वचन कहा था कि - "अब हम जाते हैं किंतु तुम्हारी इच्छा होगी तो फिर आयेंगे ।" स्मरण कराकर प्रार्थना रूप में कहा - भगवन् ! ठहरना तो आपकी इच्छानुसार ही, किन्तु एक बार अलोदा पधार करके ही अन्यत्र पधारने की कृपा करें । यही हमारा नम्र निवेदन है ।
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दादूजी भी अपने पूर्व वचन का निर्वाह करने के लिये स्वीकार कर लिया । दौसा के भक्तों ने प्रणाम करके क्षमा याचना की और पुनः पधारने की प्रार्थना भी की फिर दौसा से दादूजी अपने शिष्य सन्तों के सहित लाखा, नरहरि, दामोदरदास आदि भक्तों के साथ अलोदा जाने को तैयार हो गये और भक्तों की प्रार्थना से ग्राम में ही एक एकान्त स्थान में विराजने का निश्चय किया ।
कहा भी है -
"दौसा से ले गये जु फेरी, बहु-विधि भक्ती करी गुरु केरी ॥ (जनगोपाल)
= इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ६४ समाप्तः =
(क्रमशः)

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