मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. १९-२०) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*अर्चना(५)*
*तहं भाव चंदन भाव केसरि,* 
*भाव करि घसि लेहु ।* 
*पुनि भाव ही करि चरचि,* 
*स्वांमी तिलक मस्तक देहु ॥* 
*लै भाव ही के पुष्प उत्तम,* 
*गुहै माल अनूप ।* 
*पहिराइ प्रभु कौं निरखि नख सिख,* 
*भाव षेवै धूप ॥१९॥* 
वहाँ मन से ही चन्दन और केसर घिस कर उसका इष्टदेव की मूर्ति के मस्तक पर तिलक लगायें । और मनसा कल्पित उत्तम फूलों की अनुपम माला गूँथ कर इष्टदेव को पहनाये, और माला पहने हुए उस भगवान की अनुपम शोभा को प्रेमविह्वल हो एक-टक देखें । फिर उसके सामने मन में ही बनाये धूप, दीप दिखायें ॥१९॥ 
*तहं भाव ही लै धरै भोजन,* 
*भाव लावै भोग ।* 
*पुनि भाव ही करिकैं समर्प्पैं,* 
*सकल प्रभु कै योग ॥* 
*तहं भाव ही कौ जोइ दीपक,* 
*भाव घृत करि सींचि ।* 
*तहं भाव ही की करै थाली,* 
*धरै ताके बीचि ॥२०॥* 
फिर मन कल्पित भोजन का भोग लगायें । और उसको इष्टदेव को एकाग्र निष्ठा से समर्पित कर दें । इस अर्चना-भक्ति के अभ्यास में थाली के बीच घी से भरे दीपक को रखें ॥२०॥ 
(क्रमशः)

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