शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ३३) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*अथ सख्यभाव(८)~डुमिला१*
*सुनि शिष्य सखापन तोहि कहौं,*
*हरि आतम कै नित संग रहै ।*
*पलु छाडत नाहि समीप सदा,*
*जितहीं जितकौ यह जीव बहै ॥*
*अब तूं फिरिकै हरिसौं हित राखहि,*
*होइ सखा दृढ भाव गहै ।*
*इम सुन्दर मित्र न मित्र तजै,* 
*यह भक्ति सखापन बेद कहै ॥३३॥* 
(१-डुमिला= द्रुमिला= दुर्मिल छन्द-आठ सगण का वर्ण-छन्द है । यह सवैया का एक भेद है ।) 
(अब आठवीं सख्य-भक्ति का वर्णन करते हैं-) हे शिष्य ! अब सख्य-भक्ति के बारे में तुम्हें बताता हूँ, सुनो ! भगवान् के साकार(हरि) या निराकार(आत्मा) के रूप का चिन्तन करते हुए हमेशा उनके साथ रहने की कल्पना करनी चाहिये । उनका सामीप्य(साथ) एक क्षण भी नहीं छोडना चाहिये । जहाँ-जहाँ अन्त:करण की वृत्ति जाय वहाँ-वहाँ उस ईश्‍वर की भावना करनी चाहिये । अन्त:करण की वृतियों को घूम-घाम कर भगवान् की तरफ लगाये रहने से एक दिन तुम्हारा यह भगवान् के प्रति सख्य भाव अत्यन्त प्रगा़ढ हो जायगा । (कवि कहते हैं-) इस तरह तुम्हें तुम्हारा अतिशय हित चिन्तक मित्र मिल जायगा । ऐसे मित्र को तुम्हें कभी नहीं छोडना चाहिये । हे शिष्य ! वेद-पुराण आदि शास्त्रों में इस भाव को सख्य-भक्ति कहते हैं ॥३३॥
(क्रमशः)

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