गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. २२-३०) =

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🌷🙏🇮🇳 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🇮🇳🙏🌷
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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*अर्चना(५)*
*अथ स्तुति ~ मोतीदांम*
*अहौ हरि देव, न जानत सेव ।*
*अहौ हरि राइ, परौं तव पाइ ।*
*सुनौ यह गाथ, गहौ मम हाथ ।*
*अनाथ अनाथ, अनाथ अनाथ ॥२२॥*
हे जगद्भयहारिन् देव ! मैं आपकी सेवा करना नहीं जानता । आप जगत् के मालिक हैं । मैं आपके पैरौं पड़ता हूँ । मेरी करुण कहानी सुनिये और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे संसारसागर से तारिये । मैं तो अनाथ हूँ, बेसहारा हूँ, मेरा कोइ रक्षक नहीं है । मेरी बात कोइ सुनने वाला नहीं है ॥२२॥
*अहौ प्रभु नित्य, अहौ प्रभु सत्य ।*
*अहो अविनाश, अहो अविगत्य ।*
*अहौ प्रभु भिन्न, द्रसै जु प्रकृत्य ।*
*निहत्य निहत्य, निहत्य निहत्य ॥२३॥*
हे प्रभो ! आप नित्य हैं, आप ही सत्य हैं, आप अविनाशी हैं, आप की गति कोइ नहीं जान सकता । प्रभो ! आप से भिन्न जो कुछ इस संसार में दिखायी दे रहा है, वह सब भ्रम मात्र है । केवल आप ही नित्य हैं, आप ही नित्य हैं, आप ही नित्य हैं, आप ही नित्य हैं ॥२३॥
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*अहौ प्रभु पांवन नाम तुम्हार ।*
*भजैं तिनकै सब जांहिं विकार ।*
*करी तुम सन्तनि की जु सहाइ ।*
*अहो हरि हो हरि हो हरि राइ ॥२४॥*
हे प्रभो ! आप का नाम मानवमात्र को पापों से पवित्र करने वाला है, जो आप के नाम को भजता है उसके सभी राग द्वैषादि हृदय के विकार विनष्ट हो जाते हैं । आपने हमेशा साधुजनों की सहायता की है । हे भगवान्, हे स्वामिन्, हे मालिक ! आप ही इस संसार के मालिक ! आप ही इस संसार के मालिक हैं ॥२४॥
*अहौ प्रभु हौ सब जांन सयान ।*
*दियौ तुम गर्भ थकैं पय पान ।*
*सुतौ अब क्यौं न करौ प्रतिपाल ।*
*अहो हरि हो हरि हो हरि लाल ॥२५॥*
हे प्रभो ! आप सर्वज्ञ हैं, आप प्राणिमात्र की रक्षा में प्रतिक्षण सावधान हैं । आप ने दया करके प्रत्येक प्राणी के लिये उसके गर्भ में आते ही दूध पीने की व्यवस्था कर दी (कि वह भूखों न मर जाय)। फिर अब मेरे जैसे अनाथ की रक्षा क्यौं नहीं करेंगे ? हे हरे ! आप अमूल्य हैं, महँगे हैं, आपको हर आदमी नहीं पा सकता ॥२५॥ 
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*भजै प्रभु ब्रह्म उपेन्द्र महेस ।*
*भजै सनकादिक नारद सेस ।* 
*भजै पुनि और अनेकहि साध ।* 
*अगाध अगाध, अगाध अगाध ॥२६॥* 
आपको ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सामर्थ्यवान् भी भजते हैं । सनक,सनन्दन, सनत्कुमार, नारद, शेषनाग आदि सभी भक्त आप का ही गुणगान करते हैं । और अनेक सन्त- महात्मा भी आप का ही नाम- कीर्तन करते हैं फिर भी कोई आपका पार नहीं पा सका । भगवन् ! आप अगाध हैं, अगाध हैं, आप की गहराई को आज तक कोई जान नहीं पाया ॥२६॥
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*अहौ सुखधाम कहैं मुनि नाम ।*
*अहौ सुख दैंन कहै मुनि बैंन ।* 
*अहो सुखरूप कहैं मुनि भूप ।*
*अरूप अरूप, अरूप अरूप ॥२७॥*
पहुँचे हुए सन्त- महात्मा यह कहते हैं कि आप का ही नाम सुख-दायक (सांसारिक दु:खों से छुटकारा दिलाने वाला) है, उनकी वाणीयों में आप को ही द्वैतभ्रम का नाश कर सच्चा सुखदाता बताया है । आप ही सुखरूप है- ऐसा बड़े-बड़े सिद्धिप्राप्त मुनि भी कहते हैं । आप अरूप हैं, नीरूप हैं, निराकार हैं, आप के आकार का कोई वर्णन नहीं कर सकता ॥२७॥
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*अहो जगदादि अहो जगदंत ।* 
*अहो जगमध्य कहैं सब सन्त ।* 
*अहो जगजीव अहो जगदंत ।* 
*अनन्त अनन्त, अनन्त अनन्त ॥२८॥* 
हे प्रभो ! आप ही इस जगत् के मूल कारण हैं, आप ही इस जगत् के नाश के कारण हैं, आप ही इस जगत् की स्थिति के कारण है । कहने का सारांश यह है कि आप ही इस जगत् में जीवन डालते हैं, (सृष्टि करते हैं), आप ही इस जगत् का अन्त(नाश) करते हैं । परन्तु स्वयं आप अनन्त हैं, अविनाशी हैं, शास्वत हैं, नित्य हैं ॥२८॥ 
*अहो प्रभु बोलि सकै कहि कौंन ।* 
*रहे सिध साधक हूँ मुख मौंन ।*
*गिरा मन बुद्घि न होइ विचार ।*
*अपार अपार, अपार अपार ॥२९॥*
हे प्रभो, आप के गुणों का वर्णन वाणी से कौन कर सकता हैं ? बडे- bडे सिद्घ और साधक सन्त- महात्मा भी आप के गुणों का वर्णन करने में आखिर चुप्पी साध गये ! आप के गुणों पर, कार्यों पर, वाणी, मन या बुद्घि से विचार नहीं किया जा सकता; क्योंकि आप अपार हैं, मै स्पष्ट रूप से अपनी कमी मान लेना चाहता हूँ कि आप का वर्णन करके पार नहीं पा सकता, आप अथाह हैं, अगाध हैं ॥२९॥
*दोहा* 
*बहुत प्रशंसा करि कहौं, हौं प्रभु अति अज्ञान ।* 
*पूजा बिधि जानत नहीं, सरनि राख भगवान ॥३०॥* 
हे प्रभो ! अब मैं कहाँ तक आप की प्रंशसा(स्तुति) करूँ ? क्योंकि मैं तो अत्यन्त अज्ञानी हूँ । मैं आप की पूजा(सेवा) करने का तरीका ही नहीं जानता कि उसे यथाविधि कर सकूँ । अत: हे भगवन् ! मुझे अपनी शरण में लीजिये ॥३०॥ 
(क्रमशः)

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