शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ३१-२) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*अथ वन्दन(६)~लीला*
*बन्दन दोइ प्रकार, कहौं सिख संभलियं ।*
*दंड समान करै, तन सौं तन दंड दियं ॥*
*त्यौं मन सौं तन मध्य, प्रभूकर पाइ परै ।*
*या बिधि दोइ प्रकार सु, बन्दन भक्ति करै ॥३१॥*
(अब वन्दना भक्ति का निरूपण करते हैं-) हे शिष्य ! स्मरण-भक्ति की तरह वन्दना भक्ति भी दो प्रकार से होती है- यह तुम्हें बता रहा हूँ, भली प्रकार समझ लो । तन से भगवान् का वन्दन वह कहलाता है जब साधक भगवान्(इष्टदेव) की मूर्ति के सामने शरीर को नियन्त्रित कर दण्ड की तरह(दण्डवत्) प्रणाम करे और मन से वन्दना भक्ति वह होती है जब साधक अपने मन में इष्टदेव की मूर्ति का ध्यान कर उसे सतत प्रणाम करता रहे । इस तरह साधक को इन दोनों प्रकार की वन्दना भक्तियों का अभ्यास करना चाहिये ॥३१॥
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*अथ दास्यभाव(७)~हंसाल*
*नित्य भय सौं रहै हस्त जोरें कहै ।*
*कहा प्रभु मोहि आज्ञा सु होइ ।*
*पलक पतिब्रता पतिबचन खंडै नहीं ।*
*भक्ति दस्यत्व सिख जानि सोइ ॥३२॥*
(अब गुरुदेव दास्य-भक्ति का उपदेश कर रहे हैं-) अपने इष्टदेव के सामने हमेशा उससे डरते रहना चाहिये, हाथ जोडे विनीत व्यवहार करना चाहिये, और उन्हें सम्मुख उपस्थित समझते हुए निवेदन करते रहना चाहिये कि हे प्रभो ! कहिये ! मझे जो आज्ञा हो वही करूँ । जैसे पतिव्रता नारी किसी भी क्षण पति के वचनों के विरुद्ध नहीं चलती, उसी तरह हे शिष्य ! दास्य-भक्ति का अभ्यास करने वाले साधक को इष्टदेव के सम्मुख आचरण करना चाहिये ॥३२॥
(क्रमशः)

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