卐 सत्यराम सा 卐
जोगी जंगम सेवड़े, बौद्ध सन्यासी शेख ।
षट् दर्शन दादू राम बिन, सबै कपट के भेष ॥
दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।
अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥
हिरदै की हरि लेइगा, अंतरजामी राइ ।
साच पियारा राम को, कोटिक करि दिखलाइ ॥
दादू मुख की ना गहै, हिरदै की हरि लेइ ।
अन्तर सूधा एक सौं, तो बोल्याँ दोष न देइ ॥
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साभार ~ Ramgopal Goyal Rotiram ~
"श्रीमद् आदि शंकराचार्य कृत"
भज गोविंदम् भज गोविंदम्, गोविन्दम् भज मूढमते
पंचम श्लोक
जटिलो मुण्डी लुन्चित केशः, काषायम्बर बहुकृत वेशः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः, ह्युदर निमित्तं बहुकृत शोकः ।।
अर्थ - जटा - जूट बनाकर, सिर मुडाकर, लुंचित केश होकर, गेरुआधारी होकर पेट भरने के लिए, इसी प्रकार से नाना वेष बनाने वाला मनुष्य देखते हुए भी कुछ नहीं देखता, और शोक करता रहता है ।
श्रीमद् शंकराचार्य जी द्वारा व्याख्या ~
अगर जटाऐं रखना, मुण्डन और केश लुन्चन करवाना तथा गेरुआ वस्त्र पहनना आदि क्रियाऐं, केवल पेट पालने या भिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य से की जा रही हैं तो, ऐसा करने वाले साधु और नट में क्या ? अंतर रह जाएगा । किसी सन्त ने इसीलिए कहा है कि, "मन न रंगायौ, रंगायौ जोगी कपडा"। क्योंकि मन में तो कुछ और है, और बाहर कुछ और । शरीर को तो साधु बना दिया लेकिन अगर किसी ने आपके मन की तस्वीर खींच ली तो ? इसलिए अगर परिवर्तन लाना चाहते हो तो, मन से प्रारम्भ करो । घर में सफाई करना है तो, अंदर से शुरू करो, सडक से नहीं ।
(दोहात्मक शैली में अर्थ)
जटा - जूट सिर रख लिए, रंगे गेरुए वस्त्र ।
भरने जिनने पेट को, वस्त्र बनाए अस्त्र ॥
तो क्या ? अंतर रह गया, उन अरु नट के वेश ।
ऐसे साधु स्वयं को, क्या ? दे रहे सन्देश ॥
ऐसे मन रंगते नहीं, क्योंकि न मुक्ति चाह ।
ऐसों को उन वासना, कर देती गुमराह ॥
ऐसे बाहर और हैं, अंदर से कुछ और ।
कहें "शंकराचार्य" फिर, कहाँ स्वर्ग में ठौर ॥
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