शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

= ५६ =

卐 सत्यराम सा 卐
रूख वृक्ष वनराइ सब, चंदन पासैं होइ ।
दादू बास लगाइ कर, किये सुगन्धे सोइ ॥ 
जहाँ अरण्ड अरु आक थे, तहँ चन्दन ऊग्या मांहि ।
दादू चन्दन कर लिया, आक कहै को नांहि ॥ 
साधु नदी जल राम रस, तहाँ पखाले अंग ।
दादू निर्मल मल गया, साधु जन के संग ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~
रेवत स्थविर आयुष्मान सारिपुत्र के छोटे भाई थे सारिपुत्र बुद्ध के अग्रणी शिष्यों में एक हैं। रेवत उनके छोटे भाई थे। वे विवाह के बंधन में बंधते—बंधते ही छूट भागे थे। बीच बारात से भाग गए थे ! बारात पहुंची ही जा रही थी मंडप के पास जहां पुजारी तैयार थे। स्वागत का आयोजन था बैंड— बाजे बज रहे थे। ऐसे घोड़े से बीच में उतरकर रेवत भाग गए थे।

फिर जंगल में जाकर बुद्ध के भिक्षु मिल गए तो उनसे उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। और खदिरवन में एकांत ध्यान और मौन के लिए चले गए थे। वहां उन्होंने सात वर्ष समग्रता से साधना की और अर्हत्व को उपलब्ध हुए।

उन्होंने अभी तक भगवान का दर्शन नहीं किया था। पहले सोचा रेवत ने कि योग्य तो हो लूं तब उन भगवान के दर्शन को जाऊं। पहले कुछ पात्रता तो हो मेरी। पहले आंख तो खोल लूं जो देख सके उन्हें। पहले हृदय तो निखार लूं जो झेल सके उन्हें। पहले भूमि तो तैयार कर लूं ताकि वे भगवान अपने बीज फेंके तो बीज यूं ही न चले जाएं; उनका श्रम सार्थक हो। पहले इस योग्य हो जाऊं तब उनके दर्शन को जाऊं, तो रेवत सात वर्षों तक भगवान के दर्शन को नहीं गया। फिर सात वर्षों की समग्र साधना ध्यान में सारी शक्ति को लगा देना; रेवत अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। पहले इसलिए नहीं गया देखने भगवान को कि कैसे जाऊं। और जब अर्हत्व को उपलब्ध हो गया तो जाने की कोई बात ही न रही। तो भगवान को जान ही लिया।

बिना देखे जान लिया। क्योंकि भगवत्‍ता भीतर ही उमग आयी।

सो रेवत बड़ी मुश्किल में पड़ गया। पहले गया नहीं। तब सोच— सोच रोने लगा कि पहले गया नहीं सोचता था कि पात्र हो जाऊं और अब जाऊं क्या ! अब जिसे देखने चला था उसके दर्शन तो भीतर ही हो गए। जिस गुरु को बाहर खोजने चला था वह गुरु भीतर मिल गया सो रेवत मग्न होकर अपने जंगल में ही रहा।

उसके अर्हत्व को घटा देख भगवान स्वयं सारिपुत्र आदि स्थविरों के साथ वहां पहुंचे। वह जंगल बहुत भयंकर था रास्ते ऊबड़— खाबड़ और कंटकाकीर्ण थे। जंगली पशुओं की छाती को कंपा देने वाली दहाड़ें भरी दोपहर में भी सुनायी पड़ती थीं। लेकिन भिक्षुओं को इसकी कोई खबर नहीं मिली; कुछ पता नहीं चला। न तो रास्तों का ऊबड़—खाबड़ होना पता चला; न जंगली जानवरों की दहाड़ें सुनायी पड़ी। न कांटों से भरा हुआ जंगल दिखायी पड़ा। उन्हें तो सब तरफ फूल ही फूल खिले दिखायी पड़ते थे। उन्हें तो सब तरफ जंगल की परम शांति ध्वनित होती मालूम पड़ रही थी।

रेवत ने ध्यान में भगवान को आते देख उनके लिए सुंदर आसन बनाया। कुछ जंगल में विशेष चीजें तो उसके पास नहीं थीं। भिक्षु था। जो भी मिल सका— पत्थर ईटं— जो भी मिल सके उसी को लगाकर आसन बनाया। घास— पात जो मिल सका वह बिछा दिया। फूल बिखेर दिए। ध्यान में भगवान को आता देख…।

भगवान खदिरवन में एक माह रहे। फिर वे रेवत को भी साथ लेकर वापस लौटे। आते समय दो भिक्षुओं के उपाहन तेल की फोंफी और जलपात्र पीछे छूट गए। सो वे मार्ग से लौटकर जब उन्हें लेने गए तो जो उन्होंने देखा उस पर उन्हें भरोसा नहीं आया। किसी को भी न आता।

रास्ते बड़े ऊबड़— खाबड़ थे। जंगली पशु दहाड़ रहे थे फूल तो सब खो गए थे। सारा जंगल कांटों से भरा था। इतना ही नहीं रेवत का जो निवास स्थान घड़ी दो घड़ी पहले इतना रम्य था कि स्वर्ग को झेंपाए वह कांटों ही कांटों से भरा था। और जिस परम सुंदर आसन पर रेवत ने बुद्ध को बिठाया था, उस पर कोई भिखारी भी बैठने को राजी न हो। ऐसा कुरूप था। इतना ही नहीं घडीभर पहले जो भवन अपूर्व जीवंतता से नाच रहा था वह बिलकुल खंडहर था। वह भवन था ही नहीं। कह किसी.. न मालूम सदियों पहले कोई रहा होगा उसके महल का खंडहर था। वे तो भरोसा न कर सके। देखकर वहां ऐसा लगा कि जैसे हमने कोई सपना देखा था।

श्रावस्‍ती लौटने पर महोपासिका विशाखा ने उनसे पूछा—उन दो भिक्षुओं से—आर्य रेवत का निवास स्थान कैसा था ? मत पूछो, उपासिके ! वे भिक्षु बोले मत पूछो। ऐसी खतरनाक जगह हमने कभी देखी नहीं। खंडहर था खंडहर ! निवास स्थान कहो मत। सब कांटों से भरा था। जंगल और भी बहुत देखे हैं मगर ऐसा भयानक जंगल नहीं। आदमी दिन में खो जाए तो राह न मिले। भरी दुपहरी में ऐसा घना जंगल कि सूरज की किरणें न पार कर सकें वृक्षों को। और भयंकर जानवरों से भरा हुआ ! बचकर आ गए यही कहो उपासिके। पूछो मत। वह बात याद दिलाओ मत। और यह रेवत कैसे उस जगह में रहता था ! कांटों ही कांटों से भरा था वह खंडहर। इतना ही नहीं सांप— बिच्छुओं से भी भरा था।

फिर विशाखा ने और भिक्षुओं से भी पूछा। उन्होंने कहा आर्य रेवत का स्थान स्वर्ग जैसा सुंदर है मानो ऋद्धि से बनाया गया हो। चमत्कार है महल सुंदर हमने बहुत देखे हैं मगर रेवत जिस महल में रह रहा सुंदर ऐसा महल स्वर्ग के देवताओं को भी उपलब्ध नहीं होगा। इतनी शांति ! इतनी प्रगाढ़ शांति ! ऐसा सन्नाटा ! ऐसा अपूर्व संगीतमय वातावरण— नहीं इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।

इन विपरीत मंतव्यों से विशाखा स्वभावत: चकित हुई। फिर उसने भगवान से पूछा. भंते ! आर्य रेवत के निवास स्थान के संबंध में पूछने पर आपके साथ गए हुए भिक्षुओं में कोई उसे नर्क जैसा और कोई उसे स्वर्ग जैसा बताते हैं। असली बात क्या है ?

भगवान हंसे और बोले उपासिके ! जब तक वहां रेवत का वास था वह स्वर्ग जैसा था। जहां रेवत जैसे ब्राह्मण विहरते हैं वह स्वर्ग हो ही जाता है। लेकिन उनके हटते ही वह नर्क जैसा हो गया। जैसे दीया हटा लिया जाए और अंधेरा हो जाए ऐसे ही। मेरा पुत्र रेवत अर्हत हो गया है; ब्राह्मण हो गया है। उसने ब्रह्म को जान लिया है।

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