मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/७३-५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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दादू मन फकीर ऐसे भया, सद्गुरु के परसाद ।
जहां का था लागा तहां, छूटे वाद विवाद ॥७३॥
सद्गुरु की कृपा से हमारा मन उक्त प्रकार साधु हो गया है और अब जिस चेतन आत्मा की सत्ता से सक्रिय होकर साँसारिक विषयों में जाता था उसी आत्मा के स्वरूप - चिन्तन में लग गया है और सँपूर्ण वाद विवाद छूट गये हैं ।
ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया कलेश ।
दादू मन हीं मन मिल्या, सद्गुरु के उपदेश ॥७४॥
जैसे सन्यासी को वन के शीत, आतप, वात, वृष्टि आदि के सहन का क्लेश और गृहस्थ को घर के क्लेश उठाने पड़ते हैं, वैसे हमारे मन ने घर - वन के क्लेश नहीं सहन किये । सद्गुरु के उपदेश द्वारा मन ही मन में साधन करने से हमारा आत्मा, परमात्मा में अभेद रूप से मिला है ।
भ्रम विध्वँस
दादू यहु मसीत१ यहु देहुरा२, सद्गुरु दिया दिखाइ ।
भीतर सेवा बँदगी, बाहर काहे जाइ ॥७५॥
जो लोग चूना पत्थर से बने मंदिर व मस्जिदों में ही ईश्वर मानते हैं उनका भ्रम दूर कर रहे हैं : - हमें तो सद्गुरु ने यह शरीर ही मस्जिद१ और मन्दिर२ बताकर उपदेश दिया है कि - सच्चा उपासना - गृह तो शरीर के भीतर अन्त:करण ही है, मन को एकाग्र करके भीतर ही सेवा - भक्ति करो, प्रभु के लिए बाहर क्यों भटकते हो ?
(क्रमशः)

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