मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ३६-७) =


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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*शिष्य उवाच ~ रासा२*
*हे प्रभु मोहि कही तुम, नौ विधि भक्ति सह ।*
*फेरि कह्यौ समझाइ, सुजानि कनिष्ट यह ॥*
*मध्यहु भक्ति सुनाइ, कृपा करि कौंन अब ।*
*जानत हो गुरुदेव, जु औसर होइ कब ॥३६॥*
(२- रासा-छन्द - २१ मात्रा का आदि में गुरु अंत में लघु है ।)
(शिष्य कहता है-) हे प्रभो ! आपने मुझे नवधा भक्ति समझा दी, उसी को आपने कनिष्ठा भक्ति बताया । अब आप मध्यमा भक्ति कौन सी है- इसे कृपा कर के समझा दीजिये । मेरे दिमाग में यह बात बैठ गयी है कि ज्ञान-प्राप्ति का ऐसा अच्छा अवसर फिर कभी मिले न मिले ॥३६॥
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*२- प्रेमाभक्ति *
*श्रीगुरुरुवाच ~ सोरठा*
*शिष्य सुनाऊं तोहि, प्रेमालक्षणा भक्ति कौं ।*
*सावधांन अब होइ, जो तेरैं सिर भाग्य हैं ॥३७॥*
हे शिष्य ! अब मैं तुम्हें प्रेमलक्षणा भक्ति का उपदेश करूँगा, जिसे मध्यमा भक्ति कहा है । सावधान होकर सुनो । आज तुम्हारा भाग्य चमक उठा है, क्योंकि तुम तत्त्वज्ञान के लिये इतने उत्कण्ठित हो ॥३७॥
(क्रमशः)

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