बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

= ३४ =

卐 सत्यराम सा 卐
काया मांही भय घणा, सब गुण व्यापैं आइ ।
दादू निर्भय घर किया, रहे नूर में जाइ ॥ 
काया की संगति तजै, बैठा हरि पद मांहि ।
दादू निर्भय ह्वै रहै, कोई गुण व्यापै नांहि ॥ 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
मनुष्य हमेशा लड़ता है कि ये मेरा विचार है और उसका विचार चाहे सही हो या गलत, उसे सही सिद्ध करने की कोशिश करता है। क्योँकि उसे भय लगता है कि विचार गलत हुआ तो वह भी गलत हो जाएगा। शरीर के साथ मनुष्य का तादात्म्य उतना नहीं है जितना विचार के साथ।
यदि किसी से कहा जाए कि तुम्हारा शरीर रुग्ण है चिकित्सक को दिखलाओ तो वह बुरा नहीं मानेगा। लेकिन किसी से कहा कि तुम्हारा मन बीमार है किसी मनोश्चिकित्सक के पास चले जाओ तो वह तुरंत नाराज हो जाएगा।
किसी को बीमार कहो तो कुछ गलत नहीं लेकिन पागल कहा तो झगड़ा हो जाएगा। क्योँकि मन से बहुत गहरा तादात्म्य है। जब कोई कहता है पागल तो मनुष्य को लगता है कि मै पागल हूं। क्या कहा जा रहा है? कोई पागल कभी इसे मानने को राजी नहीं होता कि वो पागल है। क्योँकि मन के विचार धुएं की तरह मनुष्य को चारोँ तरफ से घेरे हुए हैँ।
दूसरी कठिन तपश्चर्या है विचार के प्रति जागना कि कोई भी विचार-सुखद हो, दुखद हो; सच हो, झूठ हो; शास्त्र मे हो, न हो सभी विचार उधार हैँ। मनुष्य ने सीखा है उन्हें और वे सब आयातित है।
मनुष्य तो चैतन्य मात्र है।

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