रविवार, 7 फ़रवरी 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
जोगिया बैरागी बाबा, रहै अकेला उनमनि लागा ॥ टेक ॥ 
आतम जोगी धीरज कंथा, निश्‍चल आसण आगम पंथा ॥ १ ॥ 
सहजैं मुद्रा अलख अधारी, अनहद सींगी रहणि हमारी ॥ २ ॥ 
काया वन-खंड पांचों चेला, ज्ञान गुफा में रहै अकेला ॥ ३ ॥ 
दादू दर्शन कारण जागे, निरंजन नगरी भिक्षा मांगे ॥ ४ ॥===============================
"जदि तोर डाक शुने केऊ ना आशे तोबे एकला चलो रे। 
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे।"
[यदि तुम्हारी आवाज/पुकार सुनकर कोई नहीं आता तो अकेले चलो। अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो रे।]
सत्य बहुधा अकेला ही होता है विशेषकर इस युग में क्योंकि उसका एक ही रुप है सत्य का। वह भिन्न-भिन्न आवरणों में नहीं रह सकता; सत्य बहुरुपिया नहीं हो सकता। सत्य को अपनी प्रामाणिकता के लिये संख्या का सहारा नहीं चाहिये और सत्य को परवाह भी क्या जो किसी को साबित करे अपनी प्रामाणिकता ? और करे भी तो किसे ? जो स्वयं भ्रम में हैं उन्हें या असत्य को ? संख्या की आवश्यकता असत्य को ही होती है। यही कारण है कि संतों/ रसिकों/ भक्तों और विद्वानों को भी एक साथ देखना कठिन होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें बड़ा भारी वैर होता है हालांकि विद्वानों में कुछ अपवाद भी होते हैं परन्तु दास इतना तो कह ही सकता है कि यदि सच्चे अर्थों में यदि कोई विद्वान है तो उनमें भी नम्रता और दूसरे को सम्मान देने की भावना अवश्य ही होगी न कि किसी को छोटा दिखाने की। जो सत्य को जी रहे हैं, वह भौतिक दूरी के बाबजूद भी एक ही साथ हैं क्योंकि मूल है सत्य; और वह एक ही होता है, चाहे हम उसे नग्न ही क्यों न कहें। सत्य को आवरणों की आवश्यकता नहीं होती, उसकी नग्नता में ही उसका सौन्दर्य है। होता यह है कि हम जैसे हैं, हम सत्य को भी असत्य के "सुंदर" दिखने वाले वस्त्र पहिना देते हैं और अब सत्य ढक जाता है किन्तु अब हमें सुंदर लगता है क्योंकि वह हमारे "मनोरुप" हो गया।
जहाँ भीड़ है, वहाँ विशेष सावधानी रखनी चाहिये। भीड़ अधिकतर आवेश में, सम्मोहन में गलत निर्णय कर लेती है। समाज को और स्वयं को भी क्षति पहुँचाती है। यदि प्रभु कृपा से हम सत्य से परिचित हो गये हैं तो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उस रास्ते पर कितने लोग हैं अथवा हम अकेले ही हैं। हम किसी को चाहें भी तो क्यों ? अकेले ही तो आये थे और अकेले ही जायेंगे, हमारे अकेले के ही निर्णय हमारे इस भौतिक जीवन पर प्रभाव डालेंगे। जरुरी नहीं कि किसी अन्य का लक्ष्य ही आपका भी हो सो अपने निर्णय हमें बहुत चिंतन के उपरान्त ही लेने चाहिये। 
यह तय मान लीजिये कि सत्य को अकेले ही रहना होगा; लांछन भी लग सकते हैं, परीक्षा भी देनी पड़ेगी क्योंकि यह युग ही ऐसा है। असत्य उसे आसानी से छोड़ने वाला नहीं है। उसके पास संख्या-बल भी है क्योंकि संख्या-बल के बिना वह "सत्य" का सामना करने का भी साहस नहीं कर सकता। समाज/ व्यक्ति में बड़े भारी परिवर्तन कभी भी भीड़ नहीं लायी, उसे अकेले लोग ही लाये और वह सब अधिकांशत: सामान्य लोग ही थे। उन्होंने कभी नहीं चाहा कि हम नेतृत्व करें, लोग हमारे पीछे चलें, हमें मान-सम्मान दें। वह सत्य के मार्ग पर अकेले चलते हैं किन्तु "आवाज" लगाते हुए। आपने "आवाज" सुनी, निकले, सत्य लगे तो चले वा न चले। आवाज लगाने वाले को इससे कोई लेना-देना नहीं। यदि आपका कोई भला होता है तो उसके लिये भी आप और आप पर हुयी प्रभु-कृपा ही उत्तरदायी है। यही कारण है कि सच्चे भक्त/ संत/ रसिक आवाज लगाते रहते हैं, आप उसका लाभ ले सके तो अतिउत्तम, न ले सके तो भी उन्हें कोई दुख भी नहीं। उन्होंने अपना कार्य किया। "जो "घर" फ़ूँके आपनो, चले हमारे साथ।" यह बाबलों का साम्राज्य है; बाबले ही समझ पाते हैं। तुलसी, मीरा, रैदास, कबीर, एकनाथ, नामदेव आदि सभी ने आवाज ही तो लगाई ये कब चाहा कि हम उन्हें सही मानें और उनके पीछे चलें, कब कहा कि मेरा ही रास्ता सही है, मैं ही गुरु हूँ और जो ऐसे होते हैं वास्तव में वही गुरु होते हैं।
बाबलों का काम "उच्च स्वर" में आवाज लगाना और अपने मार्ग पर नीचे दृष्टि किये चलते जाना ही है। भीतर से कोई राह दिखा रहा है; बुद्धि ताक पर रखी जा चुकी है। इन्द्रियाँ सो चुकी हैं। मान-अपमान से परे। चलना है, अकेले ही चलना है तुम आओ न आओ। 
जय जय श्री राधे !



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