रविवार, 7 फ़रवरी 2016

= विन्दु (२)६७ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६७ =*
*= एक तुर्क को निर्गुण ब्रह्म भक्ति का उपदेश =*
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एक दिन आमेर के एक मुसलमान ने दादूजी की परीक्षा करने का विचार किया कि वास्तव में दादू सच्चे प्रभु के प्यारे संत हैं या अन्य भेषधारीयों के सामान ही एक साधु हैं । फिर उसने परीक्षा करने के लिये गो मांस बना के एक पात्र में डालकर उस पात्र का मुख एक अच्छे श्वेत कपड़े से बांध दिया और दादूजी के आश्रम में ले गया ।
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दादूजी के पास उस समय कुछ सत्संगी सज्जन बैठे हुये थे, उनके देखते हुये ही उसने वह पात्र दादूजी के सामने रख दिया । दादूजी तो महान् योगेश्वर थे, उसके कपट को जान गये फिर उसे अन्य कुछ भी नहीं कहकर दादूजी ने उससे पूछा - इसमें क्या है ? तुर्क ने कहा - प्रसाद है । तब दादूजी ने कहा - फिर इसका मुख तुम ही खोलकर इस पर से कपड़ा हटा दो ।
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उसने उस पात्र का कपड़ा हटाया तो उसमें घृत शक्कर मिले हुये चावल थे । तब वह तुर्क उन चावलों को देखकर आश्चर्य में पड़ गया और अति लज्जित होकर मन में मान गया कि दादूजी तो वास्तव में प्रभु के प्यारे महान् संत ही हैं इनमें कुछ भी कमी नहीं है । यह तो मेरी मूर्खता के कारण मुझे भ्रम हो रहा था किन्तु आज वह भ्रम नष्ट हो गया है, यह भी इन महान् संत दादूजी की कृपा का ही फल है । फिर सबने उस पात्र में घृत शक्कर मिले हुये चावल देखे ।
(क्रमशः)


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