गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

= ६८ =

卐 सत्यराम सा 卐
बारू कै मंदिर मांहि बैठि रह्यो थिर होइ, 
राषत है जीवने की आसा कैऊ दिन की ।
पल पल छीजत घटत जात घरी घरी, 
बिनसत बार कहा खवरि न छिन की ॥
करत उपाइ झूंठे लैन दैन खांन पांन, 
मूसा इत उत फिरै ताकि रही मिनकी ।
सुन्दर कहत मेरी मेरी करि भूलौ शठ, 
चंचल चपल माया भई किन किन की ॥ १० ॥
किसी बालू रेत(या वायु) से बने हुए घर के समान बनी इस काया में स्थिर बैठ कर कितने दिन तक सुखमय जीवन की आशा रखते हो ! क्योंकि यह काया छन छन एवं घड़ी घड़ी तक के अल्प समय में ही क्षीण होती जा रही है । यों यह कब विनष्ट हो जाय – इस का वास्तविक समयज्ञान किसी को नहीं है । तुम इस काया की स्थिरता का विश्वास कर भोजन एवं व्यापार सम्बन्धी लम्बी लम्बी दीर्घकालीन योजना बना रहे हो, परन्तु तुम्हारी मृत्यु तुम्हारा उसी तरह पीछा कर रही है, जैसे कोई बिल्ली, भोजन की खोज में, इधर उधर फिरते हुए चूहे का पीछा कर रही हो । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं – यह मूर्ख प्राणी संसार के ममत्व में फँसा हुआ भ्रान्त हो रहा है । यह नहीं जानता कि यह चंचल चपल माया आज तक स्थायी रूप से किसकी हुई है ! ॥ १० ॥

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