शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/७९-८१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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सूक्ष्म मार्ग
दादू जिहिं मत साधू उद्धरैं, सो मत लीया शोध ।
मन लै मारग मूलगह, यह सद्गुरु का परमोध ॥ ७९ ॥
७९ - ८० में आन्तर साधना रूप सूक्ष्म मार्ग का परिचय दे रहे हैं - ब्रह्म में वृत्ति लगाना रूप जिस आन्तर साधन मार्ग द्वारा सँत जन सँसार से पार हुये हैं, वही हमने खोज लिया है । कारण - हमारे सद्गुरु का भी यही उपदेश था कि मनोवृत्ति को ब्रह्म में लय करने के सही मार्ग से ही अपने आदि कारण ब्रह्म को अभेद रूप से प्राप्त करो ।
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दादू सोई मारग मन गह्या, जिहिं मारग मिलिये जाइ ।
वेद कुरानों ना कह्या, सो गुरु दिया दिखाइ ॥ ८० ॥
जिस निष्काम ब्रह्म - चिन्तन रूप मार्ग से चलकर ज्ञान द्वारा ब्रह्म में अभेद रूप से मिलते हैं, वही मार्ग हमारे मन ने ग्रहण किया है । वेद कुरानादि ने जिसका "यह नहीं, यह नहीं" कह कर वर्णन किया है, उसी ब्रह्म का साक्षात्कार हमें सद्गुरु ने करा दिया है ।
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विचार
मन भुवँग१ यहु विष भरा, निर्विष क्यों ही न होइ ।
दादू मिल्या गुरु गारुड़ी२, निर्विष कीया सोइ ॥ ८१ ॥
८१ - ८३ में मन को विकार रहित करके प्रभु में लगाने का विचार दिखा रहे हैं - यह मन रूप सर्प१ भोग - वासना - विष से भरा है; गुरु कृपा बिना किसी प्रकार भी निर्विष न हो सकेगा । हमको तो ज्ञान रूप गारूड़(सर्प विषनाशक) मँत्र के ज्ञाता ज्ञानी२ गुरु मिल गये था, उन्हीँने उपदेश द्वारा इसे भोग - वासना विष से रहित किया है ।
(क्रमशः)

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