गुरुवार, 15 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(७३/५)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =**
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दादू देखूँ निज पीव को, दूसर देखूँ नाँहि ।
सबै दिसा सौं सोध कर, पाया घट ही माँहि ॥७३॥
विवेक, भक्ति, योग, ज्ञानादि सँपूर्ण साधन रूप दिशाओं से खोजकर हमने अपने शरीर के भीतर हृदय - प्रदेश में प्रभु को प्राप्त किया है और अब निरँतर सँपूर्ण परिस्थितियों में अपने प्रियतम परमात्मा का ही साक्षात्कार करते हैं, उससे भिन्न मायिक प्रपँच को सत्य रूप से नहीं देखते ।
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दादू देखूँ निज पीव को, और न देखूँ कोइ ।
पूरा देखूँ पीव को, बाहर भीतर सोइ ॥७४॥
ब्रह्माण्ड के बाहर और भीतर परिपूर्ण रूप से हम प्रभु को देख रहे हैं । अब तो यही अभिलाषा रहती है - निरँतर अपने प्रियतम प्रभु को ही देखते रहें, प्रभु से भिन्न कुछ भी न देखें ।
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दादू देखूँ निज पीव को, देखत ही दुख जाइ ।
हूं तो देखूँ पीव को, सब में रह्या समाइ ॥७५॥
जब हम अपने प्रभु को देखते हैं तो देखते ही हमारा साँसारिक विक्षेप जन्य दु:ख शाँत हो जाता है । इस कारण हम तो अब व्यापक रूप से सब में समाये हुये प्रभु को ही देखते हैं ।
(क्रमशः)

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