गुरुवार, 15 सितंबर 2016

= विन्दु (२)८४ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८४ =**

**= ईश्वरसिंह को उपदेश =**
"सत्संगति मगन पाइये, 
गुरु प्रसाद हि राम गाइये ॥ टेक ॥ 
आकाश धरणि धरीजे, धरणी आकाश कीजे, 
शून्य मांहिं निरख लीजे ॥ १ ॥ 
निरख मुक्ताहाल मांहीं साइर आयो, 
अपने पिया हूँ ध्यावत खोजत पायो ॥ २ ॥ 
सोच साइर अगोचर लहिये, 
देव देहरे मांहीं कवन कहिये ॥ ३ ॥ 
हरि को हितारथ ऐसो लाखे न कोई, 
दादू जे पीव पावे अमर होई ॥ ४ ॥" 
सत्संग से साक्षात्कार की पद्धति बता रहे हैं - नित्य निरंतर सत्संग में लगे रहकर, कृपा पूर्वक सद्गुरु की बताई हुई विधि से राम गुण गान करते हुये, राम को प्राप्त करो । ब्रह्म स्वरूप आकाश को वृत्ति रूप पृथ्वी में धरो अर्थात् निरंतर ब्रह्माकार वृत्ति रक्खो । वृत्ति रूप पृथ्वी को ब्रह्मरूप आकाश बनाओ अर्थात् वृत्ति को निर्विकार करो, फिर शून्य में सहज समाधि में परब्रह्म का साक्षात्कार कर लो । इस प्रकार देखने पर ही हृदय - सरोवर में परब्रह्म रूप मोती हमारी ज्ञान दृष्टि में आया है । हमने ध्यान तथा विचार द्वारा खोजते हुये ही अपने प्रभु को प्राप्त किया है । तुम भी विचार द्वारा हृदय - सरोवर में ही इन्द्रियातीत परब्रह्म को प्राप्त करो । परब्रह्म देव चूना पत्थर के मंदिर में ही है, यह कौन कहता है ? अर्थात् परब्रह्म का परिचय देने वाले वेद, शास्त्र और संत इनमें कोई भी परब्रह्म को एक देशी नहीं कहता है । इससे वह एक देशी नहीं हो सकता, सर्वत्र ही व्यापक है । अपने कल्याणार्थ हरि को उक्त प्रकार कोई भी अज्ञानी नहीं जानता है । 
यदि उक्त प्रकार जानकार ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है तो वह ब्रह्मरूप होकर अमर हो जाता है । उक्त उपदेश को सुनकर उन दोनों को ही जिज्ञासा पूर्ण हो गई, वे साधन में तो लगे हुये ही थे । उनके लिये संकेत मात्र की ही आवश्यकता थी । उक्त उपदेश को सुनकर दोनों पति - पत्नी अपने को परम धन्य समझने लगे और परमानन्द में निमग्न हो प्रसन्नता से दादूजी को प्रणाम करके फिर संत सेवा के कार्य में लग गये । फिर दादूजी के शिष्य हो कर ईश्वरदास बन गये, ये सौ शिष्यों में हैं । नौलासा में भादवा ग्राम के जगजीवनजी भी दादूजी के पास सत्संग के लिये आये थे और दादूजी के दर्शन सत्संग से अति प्रसन्न हये थे । उस समय नौलासा में दादूजी २० दिन तक रहे थे । ऐसा आत्मबिहारी जी ने लिखा है । जगजीवनजी भी दादूजी गुरु भाव रखते थे । 
इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ८४ समाप्तः 
(क्रमशः)

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