बुधवार, 21 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(४/८८=९०)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= परिचय का अँग ४ =**

ज्यों रवि एक अकाश है, ऐसे सकल भरपूर ।
दादू तेज अनँत है, अल्लह आली१ नूर ॥८९॥
जैसा आकाश में एक सूर्य है, ऐसे ही सूर्यों से सँपूर्ण विश्व को भर दें तो उनका प्रकाश भी बहुत भासेगा किन्तु उस प्रकाश से भी ब्रह्म - स्वरूप का तेजोमय प्रकाश श्रेष्ठ१ और अनन्त सिद्ध होगा ।

सूरज नहीं तहं सूरज देखे, चँद नहीं तहं चँदा ।
तारे नहीं तहं झिलमिल देख्या, दादू अति आनँदा ॥९०॥
उस ध्यानावस्था में बाह्य सूर्य चन्द्रमा नहीं होने पर भी हमने सूर्य - चन्द्रमा देखे हैं । बाह्य तारे न होने पर भी तारों की ज्योति की झिलमिलाहट देखी है । उक्त ब्रह्म - ज्योति रूप विभूतियों के दर्शन से वहां अति आनन्द का अनुभव होता है ।

बादल नहिं तहं वरषत देख्या, शब्द नहीं गरजँदा ।
बीज नहीं तहं चमकत देख्या, दादू परमानन्दा ॥९१॥
बादलों के बिना ही आज्ञा चक्र के ऊपर अमृत स्थान से अमृत वृष्टि होती है । जहां आघात जन्य शब्द कभी भी नहीं होता वहां ही अनाहत ध्वनि रूप गर्जना होती है । बिजली बिना ही बिजली के सामान आत्म - ज्योति का प्रकाश चमकता हुआ दृष्टि में आता है । इन सबको देखकर हमें अति आनन्द होता है ।
(क्रमशः)

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