बुधवार, 21 सितंबर 2016

= विन्दु (२)८५ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८५ =**

**= तिलोकशाह को उपदेश =**
तिलोकशाह का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी महाराज ने उसके अधिकारानुसार इस पद से उपदेश किया - 
"हरि केवल एक अधारा, सोई तारण तिरण हमारा ॥ टेक ॥ 
ना मैं पंडित पढ गुण जानूँ, ना कुछ ज्ञान विचारा । 
ना मैं आगम ज्योतिष जानूं, ना मुझ रूप - शृंगारा ॥ १ ॥ 
ना तप मेरे इन्द्रिय निग्रह, ना कुछ तीरथ फिरणा । 
देवल पूजा मेरे नांहीं, ध्यान कछू नहिं धरणा ॥ २ ॥ 
जोग जुगति कछू नहिं, मेरे ना मैं साधन जानूं । 
औषधि मूली मेरे नांहीं, ना मैं देश बखानूं ॥ ३ ॥ 
मैं तो और कछू नहिं जानूं, कहो और क्या कीजे । 
दादू एक गलित गोविंद से, इहिं विधि प्राण पतीजे ॥ ४ ॥ 
"अनन्य शरण होने का उपदेश कर रहे हैं - जो तिरने वालों को भी तारने वाले हैं अथवा स्वयं तिरे हुये होकर शरणागतों को तारने वाले हैं, वे हरि ही एक मात्र हमारे आश्रय हैं । न मैं पढ़ना - गुणना जानने वाला पंडित हूँ, न मुझ में कुछ ज्ञान - विचार ही है । न मैं भविष्य बात जानने वाला हूँ न ज्योतिष ही जानता हूँ । न मुझे नाना प्रकार के रूप बनाना और श्रृंगार करना ही आता है । न मैंने इन्द्रिय निग्राहादिक तप ही किये हैं । न मैंने तीर्थों में ही कुछ भ्रमण किया है । न मेरे द्वारा देव - मंदिरों की पूजा हो सकी है, न कोई मूर्ति का ध्यान ही करता हूँ । न मेरे को कुछ योग - युक्ति ही आती है और न मैं कोई साधन ही जानता हूँ । न मेरे पास जड़ी - बूटी आदि औषधि ही है । न मैं देशान्तरों की कथायें कहता हूँ । मैं तो अन्य कुछ भी नहीं जानता हूँ और तुम भी कहो, उस प्रभु की प्राप्ति के लिये और किया ही क्या जाय ? अनन्य शरण होकर भजन करना ही उचित है । 
अतः मैं तो एक गोविन्द के प्रेम रस में ही गला हुआ हूँ । इसी प्रकार प्रेमाभक्ति में रत्त होने पर भी मेरे मन को प्रभु प्राप्ति का विश्वास होता है । अतः तुम भी प्रभु की अनन्य शरण होकर प्रभु का भजन करो । यही साधन तुम्हारे लिये निर्विघ्न है और इसमें सभी साधनों का समावेश हो जाता है अर्थात् इस साधन से जो अन्य साधनों से फल होते हैं, वे सभी फल मिल जाते हैं और अन्य साधना के समान इसमें परतंत्रता आदि दोष भी नहीं हैं । केवल अपने मन को प्रभु परायण ही रखना पड़ता है और वह कुछ समय के पश्चात् अभ्यास की दृढ़ता से अपने आप ही प्रभु परायण रहने लगता है । तिलोक ने भी निश्चय कर लिया कि दादूजी महाराज ने मेरे योग्य ही साधन बताया है अब मैं इसके अभ्यास का पूर्ण प्रयत्न करूंगा और गुरुदेव की कृपा से मन को प्रभु परायण कर ही लूंगा ।"
(क्रमशः)

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