गुरुवार, 22 सितंबर 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
मध्य निर्पक्ष
चलु दादू तहँ जाइये, जहँ मरै न जीवै कोइ ।
आवागमन भय को नहीं, सदा एक रस होइ ॥ २३ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विचार द्वारा सहजावस्था रूप समाधि में, स्वस्वरू प ब्रह्म में स्थिर होकर, लय लगाइये । फिर वहाँ न कोई जन्मता है और न कोई मरता ही है, क्योंकि उसमें जन्म और मरण के भय का अभाव है ॥ २३ ॥ 

चलु दादू तहँ जाइये, जहँ चंद सूर नहिं जाइ ।
रात दिवस की गम नहीं, सहजैं रह्या समाइ ॥ २४ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विचार द्वारा वहाँ जाओ, जहाँ प्रकृति से उत्पन्न चन्द्रमा, सूर्य, रात - दिन की गति कहिए, पहुँच नहीं है । वह चैतन्य ब्रह्मस्वरूप आत्मा सहजभाव से ही सम्पूर्ण संसार में समाया हुआ है, उसी में लय लगाओ ॥ २४ ॥ 

चलु दादू तहँ जाइये, माया मोह तैं दूर ।
सुख दुख को व्यापै नहीं, अविनासी घर पूर ॥ २५ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो ब्रह्म माया प्रपंच से रहित है और निर्मल है और सुख - दुःख से रहित है, उसी में नित्य अनित्य के विचार द्वारा निश्‍चय करना ॥ २५ ॥ 

चलु दादू तहँ जाइये, जहँ जम जोरा को नांहि ।
काल मीच लागै नहीं, मिल रहिये ता मांहि ॥ २६ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस ब्रह्म - स्वरूप में किसी भी काल - कर्म की गति नहीं है, उस ब्रह्म में विचार द्वारा लय लगाकर अभेद होइये ॥ २६ ॥ 

एक देश हम देखिया, जहँ ऋतु नहीं पलटै कोइ ।
हम दादू उस देश के, जहँ सदा एक रस होइ ॥ २७ ॥ 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हम ब्रह्मवेत्ता संतों ने एक देश, कहिए बह्मदेश अनुभव द्वारा देखा है, वहाँ प्रकृति की ऋतुएँ नहीं वर्तती हैं । वहाँ एक रस है । समय, अवस्था, दिशा इन सबसे रहित होकर सभी संत उस अद्वैत अखंड ब्रह्म में लय लगाते हैं ॥ २७ ॥ 

एक देश हम देखिया, जहँ बस्ती ऊजड़ नांहि ।
हम दादू उस देश के, सहज रूप ता मांहि ॥ २८ ॥ 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मदेश हमने अनुभव द्वारा देखा है, वहाँ वासना - विकार रूप बस्ती नहीं है । हम कहिए, मुक्तजन उस ब्रह्मदेश के हैं और सहजावस्था द्वारा उसी में समा रहे हैं । अथवा वहीं चैतन्य ब्रह्म सहज कहिए, निर्द्वन्द्व रूप से सब में समाया हुआ है । मुक्तजन अनुभव द्वारा उसका साक्षात्कार करते हैं ॥ २८ ॥ 

एक देश हम देखिया, नहिं नेड़े नहिं दूर ।
हम दादू उस देश के, रहे निरंतर पूर ॥ २९ ॥ 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमने एक देश कहिए, ब्रह्म - देश अनुभव द्वारा निजरूप करके देखा है । परन्तु वह न तो नजदीक है और न दूर है । कारण, नजदीक और दूर वह वस्तु होती है, जो अपने से अलग हो । इसलिये ब्रह्म को नजदीक या दूर नहीं कह सकते । क्योंकि वह तो सबका आत्म - स्वरूप ही है, उसी में अन्तराय रहित होकर अपने मन को पूर्णतया लगाना चाहिये । अथवा ज्ञान से वह समीप है और अज्ञान से दूर है ॥ २९ ॥ 

एक देश हम देखिया, जहँ निशदिन नांहीं घाम ।
हम दादू उस देश के, जहँ निकट निरंजन राम ॥ ३० ॥ 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमने अनुभव द्वारा एक ऐसा देश देखा है, जहाँ न तो लौकिक रात होती है और न दिन ही उगता है । और तमोगुण रूप घाम, सतोगुण रूप शीतलता भी वहाँ नहीं है अर्थात् ब्रह्मरूप होने पर मुक्तजनों की अज्ञान और ज्ञान वृत्तियों का विलय हो जाता है । फिर तीन प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर निर्द्वन्द्व भाव से संतजन स्वरूप निरंजन ब्रह्म में मग्न रहते हैं ॥ ३० ॥ 

बारहमासी नीपजै, तहाँ किया परवेश ।
दादू सूखा ना पड़ै, हम आये उस देश ॥ ३१ ॥ 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासु ! ब्रह्मनिष्ठ संत अर्न्तंमुख होकर स्वस्वरूप में अखंड वृत्ति लगावें, तो फिर स्वस्वरूप ब्रह्म के ‘सूखा’ कहिए, वियोग नहीं होता है । हम मुक्तजन उसी देश से अर्थात् ब्रह्म - देश से जन - समुदाय का कल्याण करने के लिए बहिरंग द्वारा वृत्ति द्वारा उपदेश करते हैं ॥ ३१ ॥ 

जहँ वेद कुरान की गम नहीं, तहाँ किया परवेश ।
तहँ कछु अचरज देखिया, यहु कुछ औरै देश ॥ ३२ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सतगुरु महाराज कहते हैं कि जिस ब्रह्म में वेद और कुरान की, शक्ति वृत्ति की, गति नहीं पहुँचती है, वहाँ मुक्तपुरुष स्वस्वरूप में स्थिर होकर जब ब्रह्मानन्द का अनुभव किया तो फिर मायावी कार्य की विचित्रता को विचार करके अति चकित होते हैं ॥ ३२ ॥ 

वेद कुरान त्रिगुण को गावै । 
भाग त्याग बिन ब्रह्म न पावै ॥ 
दादू वाणी निर्गुण वेदा । 
निर्गुण पाइ करै भव छेदा ॥ 
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त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । 
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ 
- गीता २ - ४५
(वेद तीनों गुणों के विषय की बातें करते हैं । हे अर्जुन ! योगक्षेम की इच्छा न रखते हुए तीनों गुणों से रहित होगा । रागद्वेष के द्वन्द्वों से रहित होकर निरन्तर परमात्मा में ही स्थित होगा ।)
(श्री दादूवाणी ~ मध्य का अंग)
साभार ~ नरसिँह जायसवाल 

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