शनिवार, 24 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(४/९४-६)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
**= परिचय का अँग ४ =**
.
निराधार निज देखिये, नैनहुं लागा बँद ।
तहं मन खेले पीव सौं, दादू सदा अनँद ॥९४॥
पहले नेत्रादि द्वारा हमारी चित्त - वृत्ति बाह्य विषयों में जाती थी । अब उसके प्रतिबन्ध लग गया है, क्योंकि - मन तो अन्तर्मुख रहकर ध्यानावस्था में अपने प्रियतम प्रभु से उसी का चिन्तन - खेल खेलता रहता है और उस खेल में उसे सदा ही आनन्द का अनुभव होता रहता है । अत: वह बाहर जाना चाहता ही नहीं । साधको ! तुम भी अपने मन को अन्तर्मुख करके ध्यानावस्था में मायिक आधारों से रहित अपने आत्म - स्वरूप प्रभु को देखो ।
आत्म बल्लीतरु
ऐसा एक अनूप फल, बीज बाकुला नाँहि । 
मीठा निर्मल एक रस, दादू नैनहुं माँहि ॥९५॥
अपने ज्ञान का परिचय दे रहे हैं - जीवात्मा रूप बेलि जब मननादि साधन - जल से वृद्धि को प्राप्त हुई, तब उसके उपमा रहित ब्रह्म ज्ञान रूप एक ऐसा फल लगा है, जिस में अज्ञान – बीज नहीं है, भोग - वासना छिलका नहीं है । सँशय - विपर्य्य दोषों से रहित होने से निर्मल है । आनन्द - मधुरता से सम्पन्न है, सदा एक रस है और हमारे विचार - नेत्रों में स्थित है ।
परिचय
हीरे हीरे तेज के, सो निरखे त्रय लोइ ।
कोइ इक देखे सँत जन, और न देखे कोइ ॥९६॥
९७ - १०२ में साक्षात्कार सम्बन्धी परिचय दे रहे हैं - हीरों के समूह के तेज के समान वह ब्रह्म शीतल तेज स्वरूप है । ऐसा ही हमने अपने तृतीय ज्ञान - नेत्र से समाधि में देखा है । उसे समाधि प्राप्त कोई विरला सँत ही देख पाता है । अन्य अज्ञानी प्राणी नहीं देख सकते ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें