गुरुवार, 22 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(४/९१-३)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =**
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आत्म बल्लीतरु
दादू ज्योति चमके झिलमिले, तेज पुँज परकाश ।
अमृत झरे रस पीजिये, अमरबेलि आकाश ॥९१॥
ध्यान की प्रतीतियों का परिचय दे रहे हैं - ध्यान में कभी ऐसा भान होता है कि तेजो राशि ब्रह्म से प्रकट होकर आत्म - ज्योति झिलमिल - झिलमिल चमक रही है और कभी ऐसा भान होता है कि - चिदाकाश रूप ब्रह्म में आत्म रूप अमर - बेलि चढ़ रही है अर्थात् ब्रह्म में मिल रही है । अमृत स्थान से अमृत रस झरता रहता है । हे साधको ! तुम भी साधन द्वारा उस अवस्था में जाकर वह रस पान करो ।
परिचय
दादू अविनाशी अँग तेज का, ऐसा तत्व अनूप ।
सो हम देख्या नैन भर, सुन्दर सहज स्वरूप ॥९२॥
९३ से ९५ - - - - - में साक्षात्कार सम्बन्धी परिचय दे रहे हैं - अविनाशी ब्रह्म के सभी अँग तेजोमय हैं । उसका स्वरूप निर्द्वन्द्व होने से स्वाभाविक ही सुन्दर है और वह ऐसा अनुपम तत्व है कि - उसको कोई भी उपमा नहीं दी जा सकती है । उसको हमने विवेक - विचार - नेत्रों से इच्छा भर के देखा है ।
परम तेज परकट भया, तहं मन रह्या समाइ ।
दादू खेले पीव सौं, नहिं आये नहिं जाइ ॥९३॥
साधन द्वारा हृदय में आत्म - ज्ञान परम प्रकाश प्रकट हुआ है, तब से हमारा मन उसी प्रकाश में समाया हुआ रहता है, उस ज्ञान को नहीं भूलता और उस प्रकाश के द्वारा जिस ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है, उसी ब्रह्म - प्रियतम से उसी का चिन्तन रूप खेल - खेलता रहता है । एक विषय में आकर दूसरे विषय में जाना रूप आना जाना छोड़कर निरन्तर ब्रह्म - चिन्तन में ही स्थित रहता है ।
(क्रमशः)

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