गुरुवार, 22 सितंबर 2016

= विन्दु (२)८५ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८५ =**

प्रयागदासजी ने तिलोकशाह को कहा - स्वामीजी को लाया तो मैं था किंतु आपने बीच में ही रोक लिया है, अब स्वामीजी को मेरे साथ जाने दो । फिर प्रयागदासजी ने दादूजी महाराज से भी प्रार्थना की - स्वामिन् ! अब आप शीघ्र ही किरड़ोली पधारने की कृपा करें । १० दिन तक शाहपुरे के शाह तथा ग्राम के लोगों को सत्संग द्वारा आनन्द प्रदान करके ११ दिन प्रातःकाल प्रस्थान करने वाले ही थे । साथ चलने वाले शिष्यादिक सब पास आ गये थे । उसी समय तिलोक के मन में संकल्प हुआ कि - मैं दादूजी के विषय में बहुत समय से सुनता रहा था कि दादूजी महान् सिद्ध संत हैं किंतु मैंने इन १० दिनों में तो इनकी कोई भी करामत नहीं देखी है । कहीं लोगों ने मिथ्या ही तो नहीं उड़ा रखा है । यह संशय तिलोक के मन में उठा तब दादूजी महाराज उसके मन की बात जान गये और उसकी प्रीति का विचार करके उसका उक्त संशय नष्ट करना ही उन्होंने अच्छा समझा ।

**= तिलोक शाह का संशय नष्ट करना =**
फिर दादूजी ने यह साखी बोली - 
"परचा मांगे लोक सब, कह हमको कुछ दिखलाय । 
समर्थ मेरा सांइयां, ज्यों समझे त्यों समझाय ॥"
पश्चात् तिलोकशाह को बुला कर कहा - जहाँ पालकी पड़ी हैं; उसके पास जाजम बिछी हुई है, उस जाजम पर बिछौना बिछा है उस पर जो नई रजाई आई है उसके नीचे मेरी चादर होगी सो ले आओ । तिलोकशाह गया वहां जाकर चादर खींचीं तो वहां दादूजी को बैठे हुये देखा । फिर उसने सोचा दादूजी तो एक ही है, ये दूसरे कहां से आये । फिर उसने छत पर चढ़ कर देखा तो शिष्यों के साथ खेजड़े के नीचे खड़े हैं और किसी अन्य व्यक्ति को अपने पास बुलाने को कह रहे हैं । फिर तिलोक को अति आश्चर्य हुआ और उसने सोचा ये दादूजी एक होकर भी अनेक हो जाते है, मैंने सांभर की कथा सुनी थी कि कैद की कोटड़ी में और बाहर दादूजी दिखाई दिये और टौंक महोत्सव में भी अनेक शरीर धारण कर के प्रसाद बांटने की की कथा भी मैं ने सुनी है । वैसे ही ये दादूजी एक होने पर भी दोनों स्थानों में भास रहे हैं । यह इनकी योग शक्ति का ही चमत्कार है । फिर उसने अपना जन्म सफल समझा और वह वस्त्र लेकर दादूजी के पास आया और विनय की - स्वामिन् ! आप की गति को आप ही जानते हैं । ऐसा कहने पर दादूजी महाराज ने तिलोकशाह को एक कमर में बांधने का वस्त्र देकर कहा - इसे मेरी कमर में बाँध दो । जब तिलोकशाह उस वस्त्र को दादूजी महाराज की कमर में बांधने लगा तो एक अद्भुत चमत्कार देखने में आया । दादूजी कमर वस्त्र में नहीं बंधती थी । वस्त्र के ही गांठ आजाती थी । तिलोकशाह ने कई बार बांधी पर कमर न बंधकर वस्त्र के ही गांठ आजाती थी । इससे तिलोकशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ । अब अपने घर पर और बाहर खेजड़ा के नीचे दोनों स्थानों में दादूजी का दर्शन करने से शाह तिलोक को विश्वास हो गया था कि दादूजी महाराज महान् संत हैं, इसमें कोई संशय की बात नहीं है । ऐसा मन में विचार करके तिलोकशाह दादूजी के चरणों में पड़ गया । कहा भी है - 
"शाहपुरे दादू गये, लेगयो शाह तिलोक । 
परचा की मन में रही, चलत दिखाये दोक ॥" 
फिर दादूजी महाराज ने तिलोक को कहा - भाई ! मेरा शरीर तो एक ही है किंतु तुम्हारे मन में करामात देखने इच्छा थी इसी से तुमको मेरे दो शरीर दीख गये हैं किन्तु तुमको संतों की सेवा श्रद्धानुसार निष्काम भाव से ही करनी चाहिये, चमत्कार देखने की इच्छा से नहीं । तिलोकशाह ने दादूजी महाराज की बहुत सेवा की थी, इससे दादूजी ने भी उसको अभयगति प्रदान की थी । उक्त प्रकार तिलोकशाह का संशय दूर करके प्रयागदासजी के साथ किरड़ोली ग्राम में पधारे, तब प्रयागदासजी का मनोरथ पूरा होने से प्रयागदासजी तथा अन्य वहां के सेवकों को महान् सुख प्राप्त हुआ । 
(क्रमशः)

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