बुधवार, 28 सितंबर 2016

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#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐 
शरण तुम्हारी आइ परे । 
जहाँ तहाँ हम सब फिर आये, 
राखि राखि हम दुखित खरे ॥ टेक ॥ 
कस कस काया तप व्रत कर कर, 
भ्रमत भ्रमत हम भूल परे । 
कहुँ शीतल कहुँ तप्त दहे तन, 
कहुँ हम करवत सीस धरे ॥ १ ॥ 
कहुँ वन तीरथ फिर फिर थाके, 
कहुँ गिरि पर्वत जाइ चढ़े । 
कहुँ शिखर चढ़ परे धरणि पर, 
कहुँ हत आपा प्राण हरे ॥ २ ॥ 
अंध भये हम, निकट न सूझै, 
ताथैं तुम्ह तज जाइ जरे । 
हा हा ! हरि अब दीन लीन कर, 
दादू बहु अपराध भरे ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें अनन्य - शरण रूप विनती करते हैं कि हे समर्थ परमेश्वर ! अब हम आपकी शरण में आकर पड़े हैं । ‘जहाँ तहाँ’ कहिए लोक - परलोक में सभी स्थलों पर भटक - भटक कर अत्यन्त दुःखी हो गये हैं । अब आप ही हमारी रक्षा करो, रक्षा करो । हे नाथ ! हम तो बारम्बार तप और नाना प्रकार के व्रत करके शरीर को कष्ट देते रहे हैं । संसार में भ्रमते - भ्रमते आपकी प्राप्ति का सही मार्ग भूलकर बहिरंग साधनों के चक्र में पड़ गये हैं । कभी तो किसी जन्म में शीतल जल की पँच धारायें लेकर शरीर को काठ की भाँति शून्य बनाया और कभी पँच धूनी तापते हुए शरीर को तप्त ज्वालाओं से जलाते रहे । कभी किसी शरीर में सिर पर करवत धारकर शरीर को चीरा । कभी वन, तीर्थों में फिरते - फिरते थक गये और कहीं जाकर छोटे - बड़े पर्वतों पर चढ़े, वहाँ तप किया । किसी जन्म में पर्वत शिखर पर चढ़कर कामनावश पृथ्वी पर आ गिरे । कहीं पर किसी जन्म में अपने हाथों अपने को मार कर प्राण खोये । इस प्रकार हम तो नाना स्वार्थों में फँसकर अंधे हो गये थे । इसीलिये आप हमारे अत्यन्त समीप हृदय में रहते हुए भी हमें दिखाई नहीं पड़ते थे । हे प्रभु ! आपके हमें दर्शन न होने से ही हम आपको छोड़कर संसार में जा - जा कर अनेक प्रकार की क्लेश रूप अग्नि में जलते रहे हैं । हे हरि ! हम बहुत से पाप रूप अपराधों से भरे हुए हैं । हा ! हा ! हमें अति दुःख है । हे हरि ! अब हम दीनों पर दया करके आप अपने स्वरूप में हमें रख लीजिये । 
नौका की जानी नहीं, आठ बाट भटकाई । 
जब हरि नौका नाम जपे, तब परमेश्वर पाई ॥ २५४ ॥ 
(श्री दादूवाणी) 
चित्र सौजन्य ~ नरसिँह जायसवाल 

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