शनिवार, 17 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(७९-८१)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =**
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दादू देखु दयालु को, सन्मुख सांई सार ।
जीधर देखूँ नैन भर, तीधर सिरजनहार ॥७९॥
उस दयालु प्रभु को विचार द्वारा देख, वह सँसार का सार तत्व प्रभु तेरे सन्मुख आने वाले सर्व पदार्थों में स्थित होने से तेरे सन्मुख ही है । तेरे अन्त:करण की वृत्ति प्रत्येक पदार्थ में स्थित चेतन का आवरण भँग करके उसे ही देखती है । हम तो बुद्धि नेत्र में अद्वैत विचार भर के जिधर देखते हैं, उधर वह ब्रह्म ही भासता है ।
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दादू देखु दयालु को, रोक रह्या सब ठौर ।
घट - घट मेरा सांईयाँ, तूँ जनि जाणै और ॥८०॥
तू परम दयालु प्रभु को अपने आत्मस्वरूप से भिन्न मत समझ । वह हमारा प्रभु प्रत्येक घट में तथा दूध में मक्खन के समान विश्व के प्रत्येक परमाणु में अन्तर्हित रूप से स्थित है । उसे विचार द्वारा देख, तुझे अवश्य भासेगा ।
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उभय असमाव
तन मन नाहीं मैं नहीं, नहिं माया नहिं जीव ।
दादू एकै देखिये, दह दिशि मेरा पीव ॥८१॥
अद्वैत स्थिति में द्वैत नहीं रहता, यह कह रहे हैं - स्थूल शरीर, मन, अहँकार, माया और जीवत्व भाव, ये सब द्वैत, अद्वैत स्थिति में नहीं रहता । उस समय तो एक मात्र हमारे प्रियतम ही अद्वैत रूप से दसों दिशाओं में देखने में आते हैं ।
(क्रमशः)

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