गुरुवार, 29 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१००/२)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
**= परिचय का अँग ४ =**
.
परम तेज तहं मन रहे, परम नूर निज देखे ।
परम ज्योति तहं आतम खेले, दादू जीवन लेखे ॥१०१॥
समाधि अवस्था में हमारा मन परम तेज स्वरूप ब्रह्म के समीप ही रहता हुआ अपने आत्म - स्वरूप ब्रह्म - प्रकाश को ही देखता रहता है तथा उस समाधि की निर्विकल्पावस्था में परम ज्योति - स्वरूप ब्रह्म के साथ आत्मा ब्रह्मानन्द का अनुभव रूप खेल खेलता है । इस ब्रह्मात्मा के अभेदानन्द का अनुभव होने पर साधक का जीवन सफल हो जाता है, वह मुक्त हो जाता है ।
दादू जरै सु ज्योति स्वरूप है, जरै सु तेज अनँत ।
जरै सु झिलमिल नूर है, जरै सु पुँज रहँत ॥१०२॥
जो साधक, साधन से प्रकट हुये प्रभु - प्रकाश के झिलमिलाहट को भली प्रकार पचा लेता है, किसी अन्य को नहीं कहता, तब वह प्रकाश - पुंज उसके हृदय में अच्छी प्रकार प्रकाशित होता रहता है, फिर उसके विशेष अनुभवों को भी जब भली प्रकार पचा जाता है, तब साधक का ब्रह्म तेज अपार हो जाता है और वह पारमार्थिक अनुभवों को सम्यक् पचाने वाला साधक ज्योति स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है ।
परिचय पति पहचान
दादू अलख अल्लाह का, कहु कैसा है नूर ।
दादू बेहद१ हद नहीं, सकल रह्या भरपूर ॥१०३॥
१०३ - ११० में प्रभु पहचान का परिचय दे रहे हैं - आगरा के पास सीकरी शहर में वीरबल और अबु फजल ने प्रश्न किया था - स्वामिन् ! मन इन्द्रियों के अविषय ब्रह्म का स्वरूप कैसा है, सो कहिये ? १०६ तक उसी का उत्तर दे रहे हैं - वह ब्रह्म जाति व्यक्ति आदि से रहित निराकार होने से असीम१ है, उसकी कोई सीमा नहीं और व्यापक होने से सब विश्व में परिपूर्ण है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें