शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(७६/८)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =**
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दादू देखूँ निज पीव को, सोई देखन जोग ।
परकट देखूँ पीव को, कहां बतावें लोग ॥७६॥
सकाम कर्म करने कराने वाले लोक हृदय में प्रभु को कहां बताते हैं ? वे तो वैकुण्ठादि लोकों में ही बताते हैं किन्तु हम तो प्रत्यक्ष रूप से अपने हृदय में और विचार द्वारा सर्वत्र व्यापक रूप से प्रभु को देख रहे हैं और वही देखने योग्य है । अत: हम तो मायिक प्रपँच का बाध करके निरँतर सर्वस्थ अपने प्रियतम प्रभु को ही देखते हैं ।
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परिचय जिज्ञासु उपदेश
दादू देखु दयालु को, सकल रह्या भरपूर ।
रोम - रोम में रम रह्या, तूं जनि जाने दूर ॥७७॥
७८ - ८० में जिज्ञासु को साक्षात्कार की प्रेरणा रूप उपदेश कर रहे हैं - परमात्मा को अपने से दूर किसी लोक विशेष में रहने वाला मत समझ । तू विचार द्वारा उस दयालु प्रभु को देख, वह व्यापक होने से तेरे रोम - रोम में रम रहा है और सँपूर्ण विश्व में भी परिपूर्ण है ।
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दादू देखु दयालु को, बाहर भीतर सोइ ।
सब दिशि देखूँ पीव को, दूसर नाँहीँ कोइ ॥७८॥
तू उस दयालु परमात्मा को विचार - द्वारा देख, वह आकाश के समान सबके बाहर – भीतर स्थित है । हम तो सभी दिशाओं में अपने प्रियतम को ही सत्य और व्यापक देखते हैं अन्य किसी को भी सत्य और व्यापक नहीं देखते ।
(क्रमशः)

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