शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१०६/०८)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =**
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परम तेज प्रकाश है, परम नूर निवास ।
परम ज्योति आनन्द में, हँसा दादू दास ॥१०६॥
जो कुछ भी विश्व में ज्ञान - प्रकाश है, वह उस परम तेज स्वरूप ब्रह्म का ही है । सँतों का निवास स्थान भी परब्रह्म का स्वरूप ही है । हम सेवक जन तो उस परम ज्योति स्वरूप ब्रह्म के दर्शनानन्द - सरोवर में हँस बने रहते हैं अर्थात् निरन्तर उसका ही साक्षात्कार करते रहते हैं ।
नूर सरीखा नूर है, तेज सरीखा तेज ।
ज्योति सरीखी ज्योति है, दादू खेले सेज ॥१०७॥
उस ब्रह्म स्वरूप के समान उसी का स्वरूप है । उसके तेज सदृश उसी का तेज है । उसकी ज्ञान ज्योति के समान उसी की ज्ञान ज्योति है । किसी प्रकार भी उसके विवर्त्त - सँसार के किसी भी व्यक्ति, वस्तु आदि की उपमा उसे नहीं दी जा सकती । उसकी अष्टदल - कमल - शय्या पर हम उससे दर्शनानन्द का अनुभव रूप खेल खेलते रहते हैं ।
तेज पुँज की सुन्दरी, तेज पुँज का कंत ।
तेज पुँज की सेज पर, दादू बन्या वसँत ॥१०८॥
आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन रूप होने से तेजो राशि है । अत: तेजो राशि ब्रह्म – स्वामी और तेजो राशि हमारी आत्मा - सुन्दरी, तेज - पुँज ब्रह्म की शय्या अष्टदल - कमल पर दोनों की एकता होने से वसँत बन गई है अर्थात् हमें वसँत के समान अखँड आनन्द का अनुभव हो रहा है । शँका - वसँत में तो वृक्षों के पुष्पों की अधिकता होने से पुष्प - वर्षा होती रहती है और नर - नारी फाग खेलते हैं । उत्तर –
(क्रमशः)

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