रविवार, 2 अक्तूबर 2016

=२४=

卐 सत्यराम सा 卐 
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥ 
========================== 
साभार ~ गुंजेश त्रिपाठी 
खुद का बंदा "खुदा का बंदा" 

एक जज साहब कार में जा रहे थे, अदालत की ओर मार्ग में देखा कि एक कुत्ता नाली में फंसा हुआ है । जीने की इच्छा है, किंतु प्रतीक्षा है कि कोई आए और उसे कीचड़ से बाहर निकाल दे । 
जज साहब ने कार रुकवाई और पहुंचे उस कुत्ते के पास । उनके दोनों हाथ नीचे झुक गए और कुत्ते को निकाल कर सड़क पर खड़ा कर दिया । सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है । 
बाहर निकलते ही कुत्ते ने जोर से सारा शरीर हिलाया और पास खड़े जज साहब के कपड़ों पर ढेर सारा कीचड़ लग गया । सारे कपड़ों पर कीचड़ के धब्बे लग गए । किंतु जज साहब घर नहीं लौटे । 
उन्हीं वस्त्रों में पहुंच गए अदालत में । सभी चकित हुए, किंतु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनंद की आभा थी । वे शांत थे । लोगों के बार-बार पूछने पर बोले, मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है । वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं । दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते । वे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं । उन निमित्तों के सहारे हमें अपने अंतरंग में उतरना होता है, यही सबसे बड़ी सेवा है ।
वास्तविक सुख स्वावलंबन में है । आपको शायद याद होगा, उस हाथी का किस्सा जो दलदल में फंस गया था। वह जितना प्रयास करता उतना अधिक धंसता जाता । बाहर निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्य की धूप में सूख जाए । इसी तरह आप भी संकल्पों-विकल्पों के दलदल में फंस रहे हो । अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड़ सूख जाएगी । 
एक सज्जन जब भी आते हैं, एक अच्छा शेर सुना कर जाते हैं । हमें याद हो गया है : बस अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आपको कीचड़ से बचाने का प्रयास करो । महावीर ने यही कहा है, 'सेवक बनो स्वयं के' और खुदा ने भी यही कहा है, 'खुद का बंदा बन' 

क्यों किसी के लिए जीएं ? सामाजिक दृष्टि से सबके लिए जीने को तत्पर बने ।
अपने दिल में डूब कर पा ले सुरागे जिंदगी।
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन, अपना तो बन।। 

सेवक मत बनो, स्वयं के सेवक बनो। भगवान के सेवक भी स्वयं के सेवक नहीं बन पाते । खुदा का बंदा बनना आसान है, किंतु खुद का बंदा बनना कठिन है । खुद के बंदे बनो । भगवान की सेवा हम और आप क्या कर सकेंगे, वे तो निर्मल और निराकार हैं । अध्यात्म के क्षेत्र में अकेले जीने की बात को आत्मविकास का प्रयास माना जाता है, क्योंकि वहां यही चिंतन शेष रहता है कि व्यक्ति अकेला जन्मता है, अकेला मरता है । यहां कोई अपना-पराया नहीं । सुख-दुख भी स्वयं द्वारा कृत कर्मों का फल है । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें