सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/११३-५)

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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =**
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घन बादल बिन बरषि है, नीझर निर्मल धार ।
दादू भीजे आतमा, को साधू पीवनहार ॥११३॥
समाधि अवस्था में प्राकृत मेघ समूह के बिना ही ब्रह्म - झरने से निर्मल ब्रह्म - दर्शन – धारा बरसती है, उससे जीवात्मा भीगता है अर्थात् दर्शन में निमग्न होकर शाँति प्राप्त करता है, किन्तु ब्रह्म के साथ अभेद होना रूप पान तो कोई विरला सँत ही करता है । दर्शन तो योगियों को समाधि में हो जाते हैं परन्तु ब्रह्म से अभेद तो ज्ञानी योगी का ही होता है ।
ऐसा अचरज देखिया, बिन बादल बरषे मेह ।
तहं चित चातक ह्वै रह्या, दादू अधिक सनेह ॥११४॥
समाधि अवस्था में ऐसा आश्चर्य देखने में आता है - प्राकृत बादल न होने पर भी ब्रह्म - मेघ से ब्रह्म - दर्शन वर्षा होती रहती है । उस समाधि अवस्था में हमारा चित्त चातक पक्षी के समान अति प्रेम से ब्रह्म - दर्शन स्वाति बिन्दु के पान करने में अनुरक्त हुआ रहता है ।
महारस मीठा पीजिये, अविगत अलख अनँत ।
दादू निर्मल देखिये, सहजैं सदा झरँत ॥११५॥
साधको ! तुम समाधि अवस्था में जाकर देखो, मन का अविषय, इन्द्रियों से परे, अपार, सँपूर्ण रसों का उद्गम स्थान महारस - ब्रह्म का दर्शन - रस परम निर्मल और परमानन्द - मधुरता से सम्पन्न है तथा समाधि अवस्था में प्रतिक्षण झरता रहता है अर्थात् दर्शन होता रहता है । तुम अपने वृत्ति - नेत्रों से उसका पान करो ।
(क्रमशः)

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