मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

= सर्वंगयोगप्रदीपिका (च.उ. ३७/३८) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*सर्वांगयोगप्रदीपिका(ग्रंथ२)*
**ज्ञानयोग नामक = चतुर्थ उपदेश =** 
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*= अद्वैतयोग(४) = चौपई =*
*अब अद्वैत सुनहु जु प्रकासा ।*
*नाहं ना त्वं नाँ यहु भासा ।* 
*नहिं प्रपंच तहाँ नहीं पसारा ।*
*न तहां सृष्टि न सिरजनहारा ॥३७॥*
[अद्वैतयोग में उस त्रिगुणातीत अवस्था का वर्णन है जो शुद्ध ब्रह्म के निरूपण में “नेति नेति” कहकर उपनिषदों में वर्णित है । इसका वर्णन ‘ज्ञानसमुद्र’ के पंचम उल्लास में भी आ चुका है ।] 
अब प्रसंगोपात्त अद्वैतयोग की साधना के विषय में सुनिये । अद्वैतयोग की साधना में साधक को अहर्निश यह भावना करनी चाहिये - न मैं हूँ, न तूं है, न यह भासमान जगत् ही वस्तुतः कुछ है । न यह जगत्-प्रपंच है, न यह सृष्टि का विस्तार ही कुछ है । न कोई सृष्टि है, न इसका कोई स्रष्टा है; क्योंकि स्रष्ट्रत्व गुणोपाधि से आता है, और वह निर्गुण है ॥३७॥ 
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*न तहां प्रकृति पुरुष नहिं इंछा ।*
*न तहां काल कर्म नहिं बंछा ।*
*न तहां शून्य अशून्य न मूलां ।*
*न तहां सूक्षम नहीं सथूला ॥३८॥* 
वस्तुतः यहाँ न प्रकृति है, न पुरुष है, उसकी कोई इच्छा है । न काल हैं, न कर्म है, न स्वभाव है कि जिनके सहारे कोई सृष्टि हो । उस अद्वैतावस्था में न शून्य(निराकार) है, न अशून्य(साकार), न कोई मूल कारण है । वहाँ सांख्ययोग में वर्णित स्थूल-सूक्ष्म भेद भी कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है ॥३८॥
(क्रमशः)

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