सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

= सर्वंगयोगप्रदीपिका (च.उ. २५/२६) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
.
*सर्वांगयोगप्रदीपिका(ग्रंथ२)*
**ज्ञानयोग नामक = चतुर्थ उपदेश =** 
.
*ब्रह्मयोग(३) - चौपई -* 
*ब्रह्मयोग अब कहिये ऐसा ।*
*उपजै संशय रहै न कैसा ।* 
*ब्रह्मयोग का कठिन बिचारा ।*
*अनुभव बिना न पावै पारा ॥२५॥* 
{ब्रह्मयोग में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन है कि जीव को ब्रह्म के साथ उस अभेद ज्ञान का निज अनुभव द्वारा साक्षात्कार हो जाय जो वेदान्त के महावाक्य “अहं ब्रह्मास्मि” से तथा अपरोक्ष वृत्ति से प्रकाशित होता है ।}
साधक को शास्त्र में वर्णित ब्रह्मयोग की भी साधना करनी चाहिये; क्योंकि इस योग के अभ्यास से तत्वातत्वविनिर्णय में सभी प्रकार का सन्देह निवृत्त हो जाता है । परन्तु इस योग की साधना हँसी-खेल नहीं है । गुरुपदेश के बाद भी स्वयं साक्षात्कार के बिना यह योग सिद्ध नहीं होता ॥२५॥
.
*ब्रह्मयोग अति दुर्लभ कहिये ।*
*परचा होइ तबहिं तौ लहिये ।* 
*ब्रह्मयोग पावै निःकामी ।*
*भ्रमत सु फिरै इन्द्रियारामी ॥२६॥* 
ब्रह्मयोग की साधना इसीलिये दुर्लभ है कि वह स्वानुभवैकगम्य है । इसे कोई वीतरागी, पूर्ण निष्काम साधक ही प्राप्त कर पाता है. परन्तु यह योग का पाखण्ड भरने वाले इन्द्रियलोलुप साधकों के वश की बात नहीं है ॥२६॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें