सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

= विन्दु (२)८६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८६ =**

**= शारण को उपदेश =**
"जात कत मद को मातो रे, 
तन धन यौवन देख गर्वानों, माया रातो रे ॥ टेक ॥ 
अपनों हि रूप नैन भर देखे, कामिनि को संग भावे रे । 
बारंबार विषय रत माने, मरबो चित्त न आवे रे ॥ १ ॥ 
मैं बड़ आगे और न आवे, करत केत अभिमाना रे । 
मेरी मेरी कर करि फूल्यो, माया मोह भुलानां रे ॥ २ ॥ 
मैं मैं करत जन्म सब खोयो, काल सिरहाणे आयो रे । 
दादू देख मूढ नर प्राणी, हरि बिन जन्म गँवायो रे ॥ ३ ॥" 
तर्क पूर्वक सावधान कर रहे हैं - अरे प्राणी ! माया मद से मतवाला हुआ तू कहां जा रहा है ? तू अपने शरीर, यौवन और धन को देखकर गर्व कर रहा है और मायिक पदार्थों में ही अनुरक्त रहता है । तू अपने शरीर के रूप को नेत्रों से दर्पण द्वारा इच्छा भरकर देखता है । तुझे कामिनी का संग ही प्रिय लगता है । विषयों में सुख मानकर बारंबार उन्हीं में अनुरक्त रहता है । मरने का विचार तो तेरे मन में कभी आता ही नहीं । तेरे मन में 'मैं बड़ा हूँ' , इसके आगे कोई भी सद्विचार आता ही नहीं है । तू विद्या, बल, धन, जनादि के कितने ही अभिमान करता रहता है । यह मेरी नारी है, यह मेरी वस्तु है, इत्यादिक अहंकार द्वारा तू प्रभु को भूलकर मायिक मोह में भ्रम रहा है । मैं धनी हूँ, मैं गुणी हूँ, इस प्रकार अहंकार करते - करते ही तूने अपना सब जन्म खो दिया है । प्राणधारी मूर्ख नर ! देख तो सही तेरे शिरहाने पर काल आ गया है, तूने हरि भजन बिना व्यर्थ ही जन्म खो दिया है, यह अच्छा नहीं किया है । उक्त पद सुनकर शारण ने विचार किया - दादूजी महाराज ने तो मेरे संपूर्ण जीवन की प्रवृत्ति का परिचय दे दिया है । वास्तव में जीवन भर मेरी ऐसी ही स्थिति रही है । फिर शारण ने हाथ जोड़कर, दादूजी को प्रणाम करते हुये कहा - स्वामिन् ! आपने सत्य - सत्य ही कहा है । अब मैं आपके उपदेशानुसार जीवन बनाने का पूर्ण प्रयत्न करूंगा । ऐसा कह कर तथा दादूजी को प्रणाम करके अन्यत्र चला गया । शारण वैश्य भी शारड़ा माहेश्वरी थे । 
(क्रमशः)

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