बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१४५-४७)


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =** 
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आशिकाँ१ मस्ताने आलम२, खुरदनी३ दीदार४ ।
चँद५ रह६ चे७ कार८ दादू, यार९ माँ१० दिलदार११॥१४५॥
१४५ में साधकों की अनन्यता बता रहे हैं - सँसार२ में भगवान् के प्रेमी१ - जन भगवद् - दर्शन४ रूप भोजन३ करके और उदार११ ईश्वर रूप प्रेमपात्र९ का प्रेम - रस१० पान करके मस्त रहते हैं । उन्हें स्वर्गादि के साधन रूप अल्प५ मार्गों९ से क्या७ काम८ है ? वे स्वर्गादिक प्राप्ति के साधन नहीं करते । रह के स्थान में दह पाठ भी मिलता है, चन्द दह का अर्थ १४ लोक करते हैं ।
ब्रह्म साक्षात्कार धारणा
दादू दया दयालु की, सो क्यों छानी होइ ।
प्रेम पुलक मुलकत रहे, सदा सुहागनि सोइ ॥१४६॥
१४६ - १४९ में साक्षात्कार की स्थिति के आनन्द का प्रदर्शन कर रहे हैं - जिस भक्त पर परम दयालु भगवान् की दर्शन देना रूप दया होती है, वह किसी भी प्रकार छिपती नहीं । जैसे महिला का पति पास रहने से महिला प्रसन्न रहती है वैसे ही वह भक्त सर्वदा अपने प्रभु का दर्शन करते हुये प्रेमानन्द में पुलकित होकर प्रसन्न रहता है ।
दादू विकस विकस दर्शन करै, पुलकि पुलकि रस पान ।
मगन गलित माता रहे, अरस परस मिल प्राण ॥१४७॥
भक्त प्रफुल्लित हो - होकर प्रभु का दर्शन करते हैं और पुलकित हो - होकर प्रेम - रस का पान करते हुये देहाध्यास गल जाने पर ब्रह्मानन्द में ही निमग्न हो परस्पर अभेद भाव से मिलकर मस्त रहते हैं ।
(क्रमशः)

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