सोमवार, 27 मार्च 2017

= विन्दु (२)९६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*= चार उपवेद =* 
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*१. आयुर्वेद -* 
“औषधि खाय न पछ रहै, विषम व्याधि क्यों जाय । 
दादू रोगी बावरा, दोष वैद्य को लाय ॥ 
पशुवां की नाई भर भर खाय, व्याधि घणेरी बधती जाय ॥ 
पशुवां की नांई करे अहार, दादू बाढे रोग अपार ॥” 
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*२. धनुर्वेद -* 
“शूरा चढ़ संग्राम को, पाछा पग क्यों देहि । 
साहिब लाजे आपना, धिक् जीवन दादू तेहिं ॥ 
काया कठिन कमान है, खांचे विरला कोय । 
मारे पांचों मिरगला, दादू शूरा सोय ॥ 
काया कबज कमान कर, सार शब्द कर तीर । 
दादू यहु शर सांधकर, मारे मोटे मीर ॥” 
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*३. गांधर्व वेद -* 
२७ रागों में ४४४ पद ताल बद्ध हैं । वे गान्धर्व वेद रूप ही हैं । जो विशेषरूप से महत्व शाली हैं । नारायणा नगर में बादशाह - जहांगीर की विशेष प्रार्थना से गरीबदासजी ने दादूवाणी के दो पद गाकर ग्रीष्म - ऋतु में भी भारी वर्षा वर्षा दी थी । वे दो पद ये हैं -
*प्रथम पद -* 
“वर्षहु राम अमृत धारा, 
झिलमिल झिलमिल सींचन हारा ॥टेक॥ 
प्राण बेलि निज नीर न पावे, 
जलहर बिना कमल कुम्हलावे ॥ १ ॥ 
सूखे बेलि सकल बनराय, 
रामदेव जल वर्षहु आय ॥ २ ॥ 
आतम बेली मरे पियास, 
नीरज पावे दादू दास ॥ ३ ॥ .
*द्वितीय पद -* 
मेरु शिखर चढ़ बोल मन मोरा, 
राम जल वर्षे शब्द सुन तोरा ॥टेक॥ 
आरत आतुर पीव पुकारे, 
सोवत जागत पंथ निहारे ॥ १ ॥ 
निश वासर कह अमृत वाणी, 
राम नाम ल्यौ लाइले प्राणी ॥ २ ॥ 
टेर मन भाई जब लग जीवे, 
प्रीति कर गाढ़ी प्रेम रस पीवे ॥ ३ ॥ 
दादू अवसर जे जन जागे, राम घटा जल वरषण लागे ॥ ४ ॥ 
उक्त पदों के गाने से भारी वर्षा हुई थी जिससे व्यालुल होकर जहांगीर ने पुनः गरीबदासजी से वर्षा बन्द कराने की प्रार्थना की थी । इससे दादू वाणी के ४४४ पद गान्धर्व वेद के सूत्र रूप या गान्धर्व वेद रूप भी कहे जा सकते हैं । 
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*४. अर्थर्वेद -* 
इसके कई भेद हैं १. नीति शास्त्र, २. अश्व शास्त्र, ३. शिल्प शास्त्र, ४. सूपशास्त्रादि । 
*४(१). नीति शास्त्र -* 
“काहे कोटी खर्चिये, जे पैसे सीझे काम । 
शब्दों कारज सिद्ध हो, तो श्रम नहिं दीजे राम ॥” 
*४(२). अश्वशास्त्र -* 
“ऐकै घोड़े चढ़ चले, दूजा कोतल होय । 
दो घोड़े चढ़ चालतां, पार न पहुंचा कोय ॥ 
मन ताज़ी चेतन चढ़े, ल्यौ की करे लगाम । 
शब्द गुरु का ताजणा, कोइ पहुँचे साधु सुजान ॥” 
*४(३). शिल्पशास्त्र -* 
“मुर्ति घड़ी पाषाण की, कीया सिरजन हार ।
दादू सांच सूझे नहीं, यूं डूबा संसार ॥ 
कागद का मानुष किया, छत्रपति शिर मौर । 
राज पाट साधे नहीं, दादू परिहर और ॥ 
सकल भवन भाने घड़े, चतुर चलावन हार । 
दादू सो सूझे नहीं, जिस का वार न पार ॥ 
दादू जिन यहु एती कर धरी, थंभ बिन राखी । 
सो हमको क्यों बीसरे, संत जन साखी ॥ 
यंत्र बजाया साज कर, कारीगर करतार । 
हिकमत हुनर कारीगरी, दादू लखी न जाय ॥” 
*४(४). सूप शास्त्र -* 
“खाटा मीठा खायकर स्वाद चित दिया । 
इन में जीव विलंबिया, हरि नाम न लिया ॥ 
वेद्य विचारा क्या करे, रोगी रहै न साच । 
खाटा मीठा चरपरा, मांगे मेरा वाच ॥” 
(क्रमशः)

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