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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*= चार उपवेद =*
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*१. आयुर्वेद -*
“औषधि खाय न पछ रहै, विषम व्याधि क्यों जाय ।
दादू रोगी बावरा, दोष वैद्य को लाय ॥
पशुवां की नाई भर भर खाय, व्याधि घणेरी बधती जाय ॥
पशुवां की नांई करे अहार, दादू बाढे रोग अपार ॥”
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*२. धनुर्वेद -*
“शूरा चढ़ संग्राम को, पाछा पग क्यों देहि ।
साहिब लाजे आपना, धिक् जीवन दादू तेहिं ॥
काया कठिन कमान है, खांचे विरला कोय ।
मारे पांचों मिरगला, दादू शूरा सोय ॥
काया कबज कमान कर, सार शब्द कर तीर ।
दादू यहु शर सांधकर, मारे मोटे मीर ॥”
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*३. गांधर्व वेद -*
२७ रागों में ४४४ पद ताल बद्ध हैं । वे गान्धर्व वेद रूप ही हैं । जो विशेषरूप से महत्व शाली हैं । नारायणा नगर में बादशाह - जहांगीर की विशेष प्रार्थना से गरीबदासजी ने दादूवाणी के दो पद गाकर ग्रीष्म - ऋतु में भी भारी वर्षा वर्षा दी थी । वे दो पद ये हैं -
*प्रथम पद -*
“वर्षहु राम अमृत धारा,
झिलमिल झिलमिल सींचन हारा ॥टेक॥
प्राण बेलि निज नीर न पावे,
जलहर बिना कमल कुम्हलावे ॥ १ ॥
सूखे बेलि सकल बनराय,
रामदेव जल वर्षहु आय ॥ २ ॥
आतम बेली मरे पियास,
नीरज पावे दादू दास ॥ ३ ॥ .
*द्वितीय पद -*
मेरु शिखर चढ़ बोल मन मोरा,
राम जल वर्षे शब्द सुन तोरा ॥टेक॥
आरत आतुर पीव पुकारे,
सोवत जागत पंथ निहारे ॥ १ ॥
निश वासर कह अमृत वाणी,
राम नाम ल्यौ लाइले प्राणी ॥ २ ॥
टेर मन भाई जब लग जीवे,
प्रीति कर गाढ़ी प्रेम रस पीवे ॥ ३ ॥
दादू अवसर जे जन जागे, राम घटा जल वरषण लागे ॥ ४ ॥
उक्त पदों के गाने से भारी वर्षा हुई थी जिससे व्यालुल होकर जहांगीर ने पुनः गरीबदासजी से वर्षा बन्द कराने की प्रार्थना की थी । इससे दादू वाणी के ४४४ पद गान्धर्व वेद के सूत्र रूप या गान्धर्व वेद रूप भी कहे जा सकते हैं ।
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*४. अर्थर्वेद -*
इसके कई भेद हैं १. नीति शास्त्र, २. अश्व शास्त्र, ३. शिल्प शास्त्र, ४. सूपशास्त्रादि ।
*४(१). नीति शास्त्र -*
“काहे कोटी खर्चिये, जे पैसे सीझे काम ।
शब्दों कारज सिद्ध हो, तो श्रम नहिं दीजे राम ॥”
*४(२). अश्वशास्त्र -*
“ऐकै घोड़े चढ़ चले, दूजा कोतल होय ।
दो घोड़े चढ़ चालतां, पार न पहुंचा कोय ॥
मन ताज़ी चेतन चढ़े, ल्यौ की करे लगाम ।
शब्द गुरु का ताजणा, कोइ पहुँचे साधु सुजान ॥”
*४(३). शिल्पशास्त्र -*
“मुर्ति घड़ी पाषाण की, कीया सिरजन हार ।
दादू सांच सूझे नहीं, यूं डूबा संसार ॥
कागद का मानुष किया, छत्रपति शिर मौर ।
राज पाट साधे नहीं, दादू परिहर और ॥
सकल भवन भाने घड़े, चतुर चलावन हार ।
दादू सो सूझे नहीं, जिस का वार न पार ॥
दादू जिन यहु एती कर धरी, थंभ बिन राखी ।
सो हमको क्यों बीसरे, संत जन साखी ॥
यंत्र बजाया साज कर, कारीगर करतार ।
हिकमत हुनर कारीगरी, दादू लखी न जाय ॥”
*४(४). सूप शास्त्र -*
“खाटा मीठा खायकर स्वाद चित दिया ।
इन में जीव विलंबिया, हरि नाम न लिया ॥
वेद्य विचारा क्या करे, रोगी रहै न साच ।
खाटा मीठा चरपरा, मांगे मेरा वाच ॥”
(क्रमशः)
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