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卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*अथ मन का अँग १०*
चेतावनी सुनकर मानव के हृदय में मनो - निग्रहादिक मन विषयक अनेक प्रश्न उठते हैं । इसलिए अब "मन का अँग" कहने में प्रवृत्त मँगल कर रहे हैं -
दादू नमो नमो निरंजनँ, नमस्कार गुरुदेवत: ।
वन्दनँ सर्व साधवा, प्रणामँ पारँगत: ॥ १ ॥
जिनकी कृपा से साधक मन के विकारों से पार होकर ज्ञान द्वारा परब्रह्म को प्राप्त होता है उन निरंजन राम, सद्गुरु और सर्व सँतों को हम अनेक प्रणाम करते हैं ।
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दादू यहु मन बरजी बावरे, घट में राखी घेरि ।
मन हस्ती माता बहै, अँकुश दे दे फेरि ॥ २ ॥
२ में मनोनिरोध की प्रेरणा कर रहे हैं - हे अज्ञात तत्व साधक ! यह मन कुकर्म में जा रहा है, इसे कुकर्मों का फल दु:खदायी दिखा कर रोक । यह मन - हस्ती विषय - मद से मस्त होकर सँसार वन में जा रहा है । इसे सँसार को मिथ्या बताने वाले वैराग्य - वर्धक सद्गुरु के वचन रूप अँकुश मार - मार कर परब्रह्म की ओर लौटा तथा हृदयस्थ आत्मस्वरूप ब्रह्म में ही निरँतर स्थिर कर ।
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हस्ती छूटा मन फिरे, क्यों ही बंध्या न जाइ ।
बहुत महावत पच गये, दादू कछु न वशाइ ॥ ३ ॥
३ में मन की शक्ति का परिचय दे रहे हैं - कालादि मद से मस्त हुआ मन - हस्ती जब मर्यादा - निगड़ से खुलकर विषय वन में फिरता है, तब तीव्र वैराग्य और सतत अभ्यास बिना अन्य किसी भी उपाय से नहीं बाँधा जाता । उसको बाँधने के लिए, तीव्र वैराग्य और अभ्यास से रहित, अनेक साधक रूप महावत अन्य नाना साधन रूप प्रयत्न करके थक गये किन्तु उनका कुछ भी वश न चला - वे उसे वश में न कर सके ।
(क्रमशः)
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