रविवार, 16 अप्रैल 2017

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात ।
दीया जग में चाँदणां, दीया चालै साथ ॥ ३८ ॥ 
टीका - दीपक का मुख्य गुण तेल है, किन्तु उसके लिए मोटी बत्ती आदिक और भी सामग्री चाहिए । चन्द्रमा, सूर्य अस्त होने पर जग में कहिए-घर में दीपक से ही प्रकाश होता है और अन्धकार में दीपक को साथ लेकर ही चलना हो सकता है । 
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दान के विषय में भी सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु-जनों ! दीया अर्थात् अन्न-वस्त्रादि का जो दान, वह उनको ही परलोक में फल प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त दान के और भी गुण हैं । "दीया मोटी बात" "दीया जग में चाँदणां" अर्थात् - जो कोई भी अन्न, वस्त्र, औषधि, विद्या आदि का दान देते हैं, उसका फल तो परमेश्वर देवेंगे ही, साथ ही जग में उनका नाम भी उजागर होगा ॥ ३८ ॥ 

दिया मिलै परलोक में, कर्ण की गति जोइ । 
कंचन दत कंचन मिल्या, और मिल्या नहिं कोइ ॥ 
रोटी कोपीन दोवटी, तंदुल पैसा रोक(रोकड़ी) । 
जन रज्जब ते ऊबरें, जो बावें हरि की ओक ॥ 

रोटी देती वीर, बांदी एक दीवान की । 
टपक लगै नहीं तीर, खैर खसम आडी भाई ॥ 
द्रष्टान्त - कन्नौज शहर में, वहाँ के दीवान की दासी यानी नौकरानी, दीवान के निमित्त कहिए-रक्षा के लिए एक रोटी रोज साधु को दिया करती थी, परन्तु दीवान की घरवाली उसके काम से रुष्ट रहती थी और कहती, "मूर्ख ! रोज एक रोटी क्यों देती हैं ?" परन्तु वह उसकी बात नहीं मानती और चुपके ही साधु को दे देती । एक समय कन्नोज पर शत्रुओं ने हमला किया । दीवान सेना लेकर लड़ने को गया । जंग में देखा कि गोल-गोल रोटी के आकारमय चक्कर उसके सारे शरीर को ढक लेते । शत्रु के हथियार नहीं लग पाते और जब वह शत्रुओं पर प्रहार करता, तब वह गोल रोटी चक्ररूप धरकर शत्रु की सेना को कत्ल करते, उसे दिखलाई पड़ते । दीवान की विजय हुई । घर में आकर एक साधु से पूछा कि युद्ध की बात मुझे समझ में नहीं आई । युद्ध में वह रोटी जैसा गोल-गोल क्या था ? साधु ने कहा:- तेरी रक्षा के लिए घर में कोई रोटी दान करती है, मालूम करो । दीवान ने घर में मालूम किया, तो दासी को हृदय से प्यार किया, दान का महत्व समझा और बोला :- आपने मेरे राजा की, नगर की और मेरी रक्षा की है, आपको धन्य है । 
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सिर शोभा उतार कर, द्रौपदी पूज्या साध । 
बखना नंगी ना भई, नृप कीना अपराध ॥ 
द्वितीय द्रष्टान्त - एक समय दुर्वासा ऋषि पांडवों के यहाँ चतुर्मास ठहरे थे । वह एक ही कोपिन धारण करते थे । जब गंगा स्नान को जाते, कटि-पर्यन्त जल में घुस कर स्नान करते, फिर लंगोट को वहीं खोल और धोकर बांध लेते थे । एक रोज हाथ से लंगोट छूट गई और गहरे पानी में बह गई । ऋषि ने बाहर नंगे नहीं आना चाहा और वहीं खड़े रहे । द्रौपदी महारानी ऊपर महलों से देख रही थी कि गुरु जी आज जल से बाहर नहीं आ रहे हैं, सो क्या कारण है ? तब वह गंगा के किनारे आई और ऋषि जी को प्रणाम करके बोली :- "आज प्रभु गंगा में ही कैसे खड़े हो" ? ऋषि बोले :- पुत्री ! हमारी लंगोट हाथ से छूट गई, नंगे बाहर कैसे आवें ? यह सुनकर द्रौपदी ने अपने सिर से चीर उतार, उसमें से एक लंगोट का कपड़ा फाड़ कर ऋषि की तरफ फेंक दिया । वह उस लंगोट को लगा कर गंगा के किनारे बाहर आए । द्रौपदी जी ने चरण स्पर्श किया । ऋषि बोले बेटी ! तैने हमारे लाज रखी है, भगवान कृष्ण तेरी लाज बचायेंगे । महाभारत के समय जब द्रौपदी जी को दु:शासन ने नग्न करना चाहा, तब भगवान ने उसका चीर बढ़ाया और भक्त की लाज बचाई । मुनि का आशीर्वाद सत्य किया ।
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तृतीय द्रष्टान्त - कबीर भक्त सच्चे महापुरुष थे और उदारवृत्ति, संतोषी, सत्यवक्ता इत्यादिक इनमें भारी गुण थे । वह एक रेजी रोज हाथ से बनाते थे । आधी रेजी रोज दान कर दिया करते थे और आधी रेजी बेच, दूसरे दिन के लिए सूत लाते और घर का खर्च चलाते थे । एक रोज इनकी परीक्षा भगवान् ने स्वयं की । भगवान् ब्राह्मण रूप में आकर बोले :- भक्त कपड़ा चाहिए । कबीर जी बोले :- महाराज! आधी रेजी ले जाइये । ब्राह्मण बोला :- आधी से काम नहीं चलता । तब कबीर जी ने पूरी रेजी दान कर दी । ब्राह्मण ने आशीर्वाद दिया, "आपकी जय हो", कहकर प्रस्थान कर गया । कबीर सोचने लगे, अब सूत और कैसे लाऊँ तथा घर की रोजी कैसे चलाऊँ ? घर वाले खाने को मांगेंगे, कहाँ से दूँगा ? यह सोचकर भाग निकले और काशी में अस्सी घाट के नलों में छुप गए । तीन रोज बाद भगवान् कबीर का रूप बनाकर "बालद" भरकर कबीर के घर आए और सब माल उनके घर में डाल दिया । फिर संत रूप में कबीर को जाकर बोले - यहाँ क्यों पड़ा है ? कबीर के घर जा, वहाँ संतों की सेवा अन्न-वस्त्र से हो रही है, तूं भी जाकर खा । यह उस रेजी दान का फल हुआ है कि भगवान् कबीर के यहाँ कलिकाल में तीन बार बालद भर कर लाए ।
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चतुर्थ द्रष्टान्त - सुदामा ब्राह्मण था और भगवान कृष्ण का मित्र भी था । क्योंकि दोनों ने संदीपनी ऋषि के यहाँ साथ विद्या पढ़ी थी । एक रोज ऋषि ने एक एक मुट्ठी चने देकर सभी विद्यार्थियों से कहा :- जंगल से ईंधन लाओ । भगवान कृष्ण और सुदामा भी विद्यार्थियों के साथ जंगल में पहुँचे और ईंधन काटने लगे । अनायास बड़े जोरों से आंधी और वर्षा आ गई । सभी लोग जहाँ-तहाँ छुप गए । सुदामा और कृष्ण भी एक पेड़ के सहारे अर्थात् एक तरफ सुदामा तथा दूसरी तरफ कृष्ण बैठ गए । जो गुरु जी ने चने दिए थे, सो दोनों का हिस्सा सुदामा के पास था । भूख लगने पर सुदामा चबाने लगे । कृष्ण बोले :- मित्र क्या चबाते हो ? सुदामा बोले :- गुरु जी के दिए हुए चने । कृष्ण बोले :- मेरे हिस्से के चने ? सुदामा बोले :- मैंने सब चबा लिए । कृष्ण बोले :- अरे जा दरिद्री ! उसी दिन से सुदामा दरिद्री बन गया । पढ़ाई पूरी करने के बाद द्वारिकाधीश त्रिलोकीनाथ कृष्ण हैं । एक रोज इनकी पतिव्रता स्त्री बोली :-
एक मित्र भोगै बहु भोगू । 
एक मित्र के अन्न का सोगू ॥ 
यह कैसी मित्रता । आप जानते हो कि सुदामा की पत्नी ने सुदामा जी को चावल की कणी, प्रेम भरी कृष्ण के लिए भेंट देकर सुदामा को द्वारका भेजा । जब सुदामा भगवान् कृष्ण से जाकर मिले और भगवान कृष्ण द्वारा भाभी जी के प्रेम भरे, तंदुल कहिए चावल कच्चे चबाते ही, सुदामा के यहाँ घर पर आठ सिद्धि, नौ निधि जाकर बस गई । यह भगवान् के अर्पण करने का फल देखिए द्वापर में । 
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पाँचवा द्रष्टान्त - ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज की कीर्तन भक्ति देखकर अहमदाबाद कांकरिए तालाब पर भगवान् सहसा वृद्ध रूप धरकर प्रकट हुए और एक पैसा मांगा । दादू दयाल महाराज ने तब दोनों हाथों में एक पैसा लेकर भगवान् को भेंट किया । भगवान् बोले :- इसके तामूल नाम पान ले आओ । जब तामूल लाए तो भगवान् के मुख में दादू जी ने एक पान का बीड़ा दिया । दूसरा पान बीड़ा भगवान् ने अपने हाथ से दादू जी के मुँह में दिया । ऐसी लीला भगवान् भक्तों के साथ किया ही करते हैं । भगवान् के मुख से एक पान की पीप की बून्द, दादू जी के दाहिने पाँव के अंगूठे पर हँसते समय गिरी । दादू जी बोले :- प्रभु, यह तो प्रसाद मेरे मुख में डालना चाहिए था । यह तो बड़ा अनर्थ हुआ कि पाँव पर प्रसाद गिरा । तब भगवान् बोले :- 
एक बून्द पग ऊपर आई, 
चरणों लागि मुक्त हो जाई । 
एक जनम के दूजे तीजे, 
कलयुग माहिं मुक्त सब कीजे ॥ 
हे मेरे रूप ब्रह्मर्षि दादू दयाल ! आपके चरण पर मेरे मुख की एक बून्द गिरी है, आपके चरणों की जो जीव शरण ग्रहण करेंगे, उनको मैं कलियुग में सबको मुक्त कहिए, अपने स्वरूप में विलय कर लूंगा । यह आशीर्वाद देकर त्रिलोकीनाथ अन्तर्धान हो गए । ब्रह्मर्षि दादू दयाल ने रोकड़ी एक पैसा प्रभु को भेंट किया था । उसका फल देखिए, दादू जी के सम्पूर्ण काम भगवान् ने सिद्ध किए । 
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इसलिए इस लोक में दान देने वाले की कीर्ति होती है और दान से सब प्राणीमात्र वश में हो जाते हैं । यहाँ तक समझो कि बैरी लोग बैर छोड़कर मित्र बन जाते हैं । पराये लोग भी अपने भाई बन जाते हैं । दान एक ऐसा उत्तम कर्म है कि यह सब बुराईयों को दूर कर देता है । सत्य तो यह है कि जिसको दान देने की आदत पड़ जाती है, उनको फिर अन्य कोई व्यसन सूझ ही कैसे सकता है ? उसका धन तो परोपकार में ही लगता है । इसलिए धन, दान, धर्म में लग गया हो तो ठीक ही है, अन्यथा उसकी गति अच्छी नहीं होती । दान में नहीं लगेगा तो, दुर्व्यसनों में जायेगा अथवा नष्ट हो जाएगा क्योंकि कहा है :-
धन की गति तो तीन है, दान, भोग और नाश । 
दान, भोग जो ना करे, निश्चय होय विनाश ॥ 
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दान से वंश, जाति, देश की, मान प्रतिष्ठा की, इससे वृद्धि होती है । यह सब फल तो सुखी अवस्था के हैं । परन्तु दुखी अवस्था में भी इससे ही फल मिलता है कहिए रक्षा होती है । "दीया चालै साथ" - देहान्त होने पर भी हाथों से किया हुआ दान ही साथ चलता है । ज्ञान पक्ष में "दीया" सतगुरु का जो सत्योपदेश है, उसे वे जिनमें गुरु भक्ति, श्रद्धा आदि गुण विद्यमान हैं, वे लहैं कहिए, नाम प्राप्त करते हैं । "दीया मोटी बात" अर्थात्-मनुष्य देह प्राप्त करके, मन अनेक विषयों से आकर्षित होता है, किन्तु परमार्थ सतगुरु से सत्य का ही ज्ञान मिलता है । यही प्रशंसायुक्त बात है । "दीया जग में चाँदणा"- जैसे घर में धरी हुई इष्ट अनिष्ट वस्तु का बोध प्रकाश से होता है, वैसे ही जगत् प्रपंच में, इष्ट जो आत्मतत्व और अनिष्ट जो अनात्मतत्व है, उनका भी ज्ञानरूपी प्रकाश से ही बोध होता है । "दीया चालै साथ"- आत्म ज्ञान से ही प्राणी अजर, अमर होता है । जिस से अन्त में केवल ज्ञान ही साथ चलता है । भावार्थ यह है कि प्रथम तो अन्त:करण की शुद्धि के निमित्त निष्कामभाव से दानादिक करने चाहिए, और अन्त:करण की शुद्धि के अनन्तर सतगुरुओं की शरण में उपस्थित होकर आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए । मनुष्यत्व की इसी में सफलता है ।

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