卐 सत्यराम सा 卐
दादू जरा काल जामण मरण, जहाँ जहाँ जीव जाइ ।
भक्ति परायण लीन मन, ताको काल न खाइ ॥
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साभार ~ Girdhari Agarwal
*आध्यात्मिक शिक्षाप्रद कथा*
*खेती कर शुभ कर्मों की*
प्राचीन समय में सिंहल द्वीप में सिंह विक्रम नाम का एक चोर रहता था| दूसरों का धन चुराना ही उसकी आजीविका थी| इस प्रकार लोगों के यहां चोरी करके उसके बहुत-सा धन इकट्ठा कर लिया था|
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युवावस्था के बाद जब वह चोर वृद्धवस्था में पहुंचा तो एक दिन उसने मन में विचार किया - 'जीवन-भर मैंने चोरी-चकारी करके ही अपना भरण-पोषण किया है| इस प्रकार इस लोक का जीवन तो मेरा व्यतीत हो गया, पर परलोक में मेरा क्या होगा| वहां मेरे पापों से मुझे कौन बचाएगा? यदि मैं भगवान शिव अथवा भगवान विष्णु की शरण में जाऊं तो वे तो मेरी सेवा स्वीकार ही नहीं करेंगे| कारण यह है कि मैंने असंख्य पाप किए हैं| इससे तो अच्छा यही है कि चित्रगुप्त की आराधना करूं, क्योंकि वे ही समस्त प्राणियों के पाप एवं पुण्यों का लेखा-जोखा रखते हैं| चित्रगुप्त शीघ्र ही प्रसन्न हो जाने वाले देव हैं| वे मुझ पर प्रसन्न होकर मेरी रक्षा कर सकते हैं|'
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ऐसा विचारकर सिंह विक्रम नामक उस चोर ने चित्रगुप्त की आराधना करनी शुरू कर दी| वह प्रतिदिन भक्ति भाव से चित्रगुप्त की आराधना करता और उनकी प्रसन्नता के लिए ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर दान-दक्षिणा देता रहता|
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जब ऐसा करते-करते अनेक वर्ष बीत गए तो एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके चित्रगुप्त उनकी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए स्वयं उसके घर पधारे| सिंह विक्रम ने उनका बहुत स्वागत-सत्कार किया| उन्हें ब्राह्मण समझकर दान-दक्षिणा दी, फिर वह हाथ जोड़कर ब्राह्मण-रूपी चित्रगुप्त से बोला - "हे विप्रवर! मेरे लिए प्रार्थना करें कि चित्रगुप्त मुझ पर प्रसन्न हो जाएं|"
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तब ब्राह्मण-रूपी चित्रगुप्त ने उससे पूछा - "भक्त ! पहले मुझे यह बताओ कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं अन्य देवताओं को छोड़कर तुम सिर्फ चित्रगुप्त की ही आराधना क्यों करते हो?"
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"यह तो अपनी-अपनी श्रद्धा है विप्रवर!" सिंह विक्रम ने उत्तर दिया - "कोई किसी देवता की आराधना करता है तो कोई किसी दूसरे देवता की| मेरे आराध्य देव तो चित्रगुप्त ही हैं, इसलिए मैं उन्हीं की आराधना करता हूं|"
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"तो क्या अपने आराध्य देव का प्रसन्न करने के लिए तुम बड़े-से-बड़ा त्याग करने को भी तैयार हो? मान लो तुम पर प्रसन्न होने के लिए मैं चित्रगुप्त से प्रार्थना करूं तो क्या बदले में तुम मुझे अपनी सबसे प्रिय वस्तु को दे दोगे?"
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"सहर्ष दे दूंगा विप्रवर! आप मांगकर तो देखिए|"
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"यदि मैं ऐसा करने के लिए तुम्हारी स्त्री मांगूं तो...?"
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"वह भी दे दूंगा| बस मुझे अपने आराध्य देव चित्रगुप्त की कृपा चाहिए|"
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स्वयं में ऐसी निष्ठा और दृढ़ विश्वास देखकर चित्रगुप्त अपने असली रूप में प्रकट हो गए| वे सिंह विक्रम से बोले - "मैं ही चित्रगुप्त हूं, भक्त! कहो, मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?"
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अपने आराध्य देव को सामने पाकर सिंह विक्रम बहुत प्रसन्न हुआ| उसने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक निवेदन किया - "हे देव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कोई ऐसा वर दीजिए, जिससे कभी मेरी मृत्यु न हो|"
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चित्रगुप्त बोले - "भक्त सिंह विक्रम! मृत्यु से छुटकारा पाना तो संभव नहीं है, फिर भी मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूं, ध्यान से सुनो|
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जब से भगवान शिव ने क्रुद्ध होकर महामुनि श्वेत के क्रोध का शमन करने के लिए काल(मृत्यु का देवता) को जला डाला और फिर आवश्यकता जानकर उसे फिर से जीवित भी कर दिया, तब से जहां कहीं श्वेत मुनि निवास करते हैं, काल वहां किसी प्राणी को, ईश्वर की आज्ञा से बंधा रहने के कारण हानि नहीं पहुंचाता| श्वेत मुनि इन दिनों पूर्व समुद्र के पार, तरंगिणी नदी के परले किनारे पर आश्रम बनाकर रहते हैं| मैं तुम्हें वहां पहुंचा दूंगा, पर सावधान, किसी हालत में भी तरंगिणी नदी को पारकर इस पार आने की गलती मत करना| यदि भूलकर भी तुमने ऐसा किया तो काल तुम्हें तुरंत दबोच लेगा|"
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"मैं यथासंभव सावधान रहूंगा देव|" सिंह विक्रम बोला - "पर यदि असावधानीवश कभी ऐसा हो गया तो?"
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"तब भी मैं तुम्हारी रक्षा का कोई-न-कोई उपाय खोज लूंगा| मृत्युलोक छोड़कर जब तुम दूसरे लोक में पहुंचोगे तो मैं तुम्हारी रक्षा का उपाय तुम्हें बता दूंगा|" ऐसा कहकर चित्रगुप्त अंतर्धान हो गए|
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जब सिंह विक्रम की आयु सीमा समाप्त हो गई तो मृत्यु दूत उसके प्राण लेने पहुंचे, किंतु चित्रगुप्त तो पहले ही उसे श्वेत मुनि के सीमा क्षेत्र में पहुंचा चुके थे, अत: मृत्यु दूत उसके प्राणों का हरण न कर सके| उन्होंने वापस जाकर मृत्युदेव को अपनी असफलता की बात बताई| तब मृत्युदेव ने अपनी माया फैलाई| उन्होंने अपनी माया से एक ऐसी स्त्री को प्रकट किया, जो सर्वांग सुंदरी थी, फिर उन्होंने उस स्त्री को कुछ समझाकर श्वेत मुनि के उस क्षेत्र में भेज दिया, जहां सिंह विक्रम रह रहा था| उस सुंदर स्त्री ने शीघ्र ही सिंह विक्रम को अपने रूप के जाल में फांस लिया| वृद्ध होने पर भी सिंह विक्रम उसे पाने की इच्छा रखने लगा| धीरे-धीरे दोनों में घनिष्ठता बढ़ती गई और वे दोनों प्राय: नदी के किनारे टहलने के लिए जाने लगे|
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तदंतर एक दिन नित्य की भांति जब वे दोनों नदी किनारे टहल रहे थे तो वह स्त्री जान-बूझकर नदी में जा गिरी और डूबने से बचने का झूठा प्रयास करते हुए पानी में हाथ-पैर चलाकर सहायता की गुहार लगाने लगी| उसका करुण क्रंदन सुनकर सिंह विक्रम द्रवित हो उठा| वह नदी में कूदने को तत्पर हुआ, पर तभी उसे चित्रगुप्त द्वारा कही बात याद आ गई - 'सावधान सिंह विक्रम! नदी के इस पार आए तो मृत्यु तुम्हें दबोच लेगी|'
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सिंह विक्रम उलझन में पड़ गया कि वह क्या करे और न करे| एक ओर तो उसकी प्रेमिका उससे बचाने की गुहार लगा रही थी तो दूसरी ओर चित्रगुप्त द्वारा दी गई हिदायत उसे नदी के जल में कूदने से रोक रही थी| इस बार उस मायावी स्त्री ने उसकी मर्दानगी को ललकार दिया| वह कहने लगी - "सिंह विक्रम! तुम मुझे बचाते क्यों नहीं? देखो मैं डूब रही हूं| अगर तुम मुझे नहीं बचाओगे तो मैं समझूंगी कि तुम कायर हो| तुम नाम के ही सिंह विक्रम हो, वास्तव में तो तुम एक श्रृगाल (गीदड़) हो|"
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अपनी प्रेमिका द्वारा ऐसा ताना सुनकर सिंह विक्रम चित्रगुप्त की हिदायत भूल गया| वह नदी के जल में कूद गया और उस स्त्री को खींचकर किनारे पर लाने का प्रयास करने लगा, पर यह क्या! ज्यों-ज्यों वह उस स्त्री को बाहर खींचता, स्त्री उसे गहरे जल के अंदर खींच लेती| अंतत: वह स्त्री उसे खींचकर दूसरे किनारे पर ले आई, फिर जैसे ही वे दोनों किनारे पर पहुंचे, मृत्युदूत प्रकट हो गए और उन्होंने उसके प्राण हर लिए|
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मृत्युदूत सिंह विक्रम की आत्मा को लेकर मृत्युदेव के पास पहुंचे| वहां चित्रगुप्त ने उसके जीवन का लेखा-जोखा पढ़ा| उन्होंने सिंह विक्रम से कहा - "सिंह विक्रम! तुम्हारा तो सारा जीवन ही पापों से भरा हुआ है, पर कुछ पुण्य भी तुम्हारे खाते में दर्ज हैं| उन पुण्यों के कारण तुम कुछ समय के लिए स्वर्ग में जाने के अधिकारी हो, किंतु शेष जीवन तुम्हें नर्क में ही भोगना पड़ेगा| बोलो पहले नर्क में जाना चाहोगे या थोड़े-से पुण्यों का फल भोगने के लिए स्वर्ग में?"
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फिर बड़ी चतुराई से चित्रगुप्त से संकेत कर दिया कि वह पहले स्वर्ग में जाने की इच्छा ही व्यक्त करे| सिंह विक्रम ने तब पहले अपने पुण्यों का फल भोगने के लिए स्वर्ग जाने की इच्छा व्यक्त कर दी| तत्काल देवदूत उसे लेने के लिए वहां आ पहुंचे| देवदूत जैसे ही उसे लेकर चले, चित्रगुप्त ने धीमे स्वर में सिंह विक्रम से कहा - "सिंह विक्रम! स्वर्ग में जाकर भोग-विलास में मत डूब जाना| रात-दिन श्रीहरि की उपासना करते रहना| जितना तुम उनकी उपासना करोगे, उतने ही तुम्हारे पाप क्षीण होते जाएंगे| इस प्रकार तुम्हारे पुण्य काल की अवधि बढ़ती जाएगी और फिर तुम स्थायी रूप से स्वर्ग के अधिकारी बन जाओगे|"
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सिंह विक्रम ने ऐसा ही किया| स्वर्ग में पहुंचकर वह रात-दिन तपस्या करने लगा| जब स्वर्ग में रहने की उसकी अवधि समाप्त हुई तो नर्क के दूत उसे लेने पहुंचे, किंतु उसे श्रीहरि की तपस्या में रत देखकर उनकी हिम्मत उन्हें छूने की नहीं हुई, फिर वे कई बार उसे लेने के लिए वहां पहुंचे, किंतु हर बार उन्हें असफलता का मुंह देखना पड़ा| वे जब भी वहां जाते, सिंह विक्रम उन्हें तपस्या करता ही मिलता| धीरे-धीरे सिंह विक्रम के सारे पापों का क्षय हो गया और वह स्थायी रूप से स्वर्ग में रहने का अधिकारी बन गया| किसी ने सच ही कहा है - 'व्यक्ति के अपने कर्म ही उसे नीच अथवा महान बनाते हैं, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन में हमेशा शुभ कर्म करे| परोपकार करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता और मृत्यु के उपरांत उसे स्वर्ग में स्थान मिलता है|'
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